सोमवार, 16 जुलाई 2012

नजरिया ये भी ..


यूँ तो मैं व्यक्तिगत रूप से हिंदू धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म विशेष पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करता और हिंदू धर्म पर इसलिए करता हूँ क्योंकि मैं स्वयं को हिंदु मानता हूँ और अपने धर्म पर टिप्पणी करने का सभी को नैतिक हक है । किंतु कल डॉक्टर सुब्रह्मणियम स्वामी का इंटरव्ह्यू देख रहा था। उन्होने मस्जिदों और मंदिरों के संदर्भ में बड़ी गँभीर बात कही । जो वास्तव में विचारणीय है । जो बंधु उस वक्तव्य को ना सुन पाये हों या सुन कर भी ध्यान ना दिया हो उनके लिए पुन: इस विचारणीय तथ्य को संज्ञानार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ ।   


अरब देश मुस्लिम धर्म को मानने वाले इस विश्व के सबसे सर्वोत्तम देशों में माने जाते हैं किंतु संयुक्त अरब अमीरात में एक सड़क बनाने में व्यवधान उत्पन्न कर रहे मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया । कहा जाता है कि इस मस्जिद में कभी हजरत मोहम्मद ने भी नमाज पढ़ा था । इतनी महत्वपूर्ण मस्जिद होने के बावजूद भी उसे केवल एक सड़क बनाने के नाम पर ध्वस्त कर दिया गया । जाहिर है लोगों की आस्था को भी चोट पहुँची होगी और लोगों ने विरोध भी किया होगा लेकिन वहाँ की अथॉरिटी ने ऐसा तर्क दिया जिसका किसी मुसलमान के पास कोई जवाब नहीं था और कोई भी मुसलमान इस तर्क से असहमत भी नहीं हो सकता ।

तर्क था – मस्जिद केवल नमाज अदा करने की जगह है
, एक व्यवस्था है जहाँ लोग इकठ्ठे होकर खुदा का सजदा कर सकें । उस स्थल या भवन का कोई धर्मिक महत्व नहीं हैं । यदि मस्जिदों के स्थानों और भवनों पर आस्था रखी जायेगी तो यह गैर इस्लामिक चरित्र होगा क्योंकि कुरान में बुतपरस्ती गुनाह है । इसलिए मस्जिदों को केवल नमाज पढ़ने के स्थान के रूप में ही देखना चाहिए ना कि धार्मिक आस्था के केंद्र के रूप में ।
 

इस तर्क को बाबरी मस्जिद के परिपेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए । बाबरी मस्जिद में कई वर्षों से कोई नमाज अदा नहीं की गई । इसका सीधा अर्थ यह है कि यह भवन अब मस्जिद नहीं है केवल एक खण्डहर भवन मात्र है । इसके गिराये जाने अथवा गिरने से धार्मिक कुठाराघात या मानवता पर शर्म जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए । देश में हजारों ऐसे खण्डहर और पुराने भवन रोज गिराये जाते हैं ।
 

जहाँ तक मंदिरों के भवनों के प्रति भी ऐसी ही भावना रखने के संदर्भ में जब स्वामी से पूछा गया तो उन्होने कहा कि मंदिरों की बात अलग है । उनमें भगवान के मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है सो ऐसे मंदिरों को तोड़ा जाना धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात और नैतिक रूप से गलत है । लेकिन उन्होने साथ में ये भी कहा कि ऐसे मंदिर जो कुकुरमुत्ते की तरह सड़कों के किनारे या यहाँ वहाँ व्यक्तिगत लाभ हेतु या जमीन पर कब्जा बनाने के उद्देश्य से बनाये गये हों उन्हे अवश्य ही तोड़ा जाना चाहिए । ये भवन मंदिर नहीं अतिक्रमण हैं ।
 

ये बातें कई लोगों को उन्माद से भर सकती हैं । कई हिंदुवादी लोग इस पर ढोल-नगाड़ा पीट कर जश्न मना सकते हैं और कई कट्टर मुस्लिम चरमपंथी इस पर गाली गलौज के स्तर पर भी जा सकते हैं । इन दोनो श्रेणी के लोगों का मानवता से कोई लेना देना नहीं होता सो मुझे इसकी फिक्र नहीं लेकिन तीसरी श्रेणी के लोग जो धर्मनिरपेक्ष की श्रेणी में खुद को रखकर महान मानवतावादी होने का दावा करते हैं , उनकी प्रतिक्रियाओं का मुझे बेसब्री से इंतजार है ।
उनकी प्रतिक्रिया ही तय करेगी कि वे वास्तव में सेकुलर हैं या शेखुलर ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. संजय भाई...
    यह Interview मैंने भी देखा था....
    सुब्रमन्य स्वामी के जवाब वास्तव में लाजवाब और तर्क के आधार पैर खरे थे..
    और खरी बात बहुतों को चुभती है....
    पैर वही सत्य भी होता है....
    मेरी बात कहें तो स्वामी ने सही कहा था..

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  2. अपना सीधा फंडा है अपना छोड़ता नहीं और दूसरों को छेड़ता नहीं. जहाँ तक रही विचारधारा की बात तो अगर मेरी किसी बात को कहने के कारन कोई व्यक्ति मेरे से दूर हो सकता है तो मैं उस बात को कहता ही नहीं हूँ. विचारधारा तो मेरे अन्दर सुरक्षित है ही. बाकी जिसको जो चिल्ल-पों करनी हो करते रहें मुझे कोई मतलब नहीं. मेरे लिए व्यक्ति विचारधारा से ज्यादा महत्व रखता है.

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  3. वैसे लिखे बहुत अच्छा हैं और तर्क वो भी सोदाहरण है. आपकी लेखनी ऐसे ही चलती रहे ऐसी शुभकामना

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  4. मंदिर और मस्जिद मे फ़र्क तो बहुत से हैं। और यह भी सही है कि मस्जिद का धार्मिक महत्व नही होता। यहा तक की पैगंबर मुहम्मद के घर को भी सउदी अरब मे कुछ साल पहले ढहा दिया गया था। पर भारत की बात अलग है यहा कोई कितना भी हिंदु और मुसलमान बन जाये है इसी सरजमी का आदमी और अपने धार्मिक स्थल को एक ही निगाह से देखता है। इस बात को भी छोड़ दिया जाये तो इस देश के नेताओ ने एक सीधा सा हल कभी नही अपनाया कि इन विवादास्पद ढांचो को शिफ़्ट कर दिया जाये। यहां तक की भाजपा ने भी नही जो कि यूपी मे सत्ता मे थी और मुख्यमंत्री के एक सीधे आदेश से ढांचा शिफ़्ट किया जा सकता था। भले इसके बाद उस निर्णय पर कोर्ट का स्टे कोई ले आता। पर इस कदम से लोगो की धारमिक भावनाए उद्द्वेलित नही होती। लेकिन हर किसी को मामले का वोट बैंक फ़ायदा चाहिये। इतने वर्षो राममंदिर विवाद कोर्ट मे चलता रहा कोई हिंदु वादी दल उसके तुरंत निर्णय के लिये कोर्ट नही गया। न ही सुप्रीम कोर्ट गया। पहले विवाद खड़ा कर ढांचे को गिराया सत्ता पायी फ़िर कही जाकर अब कोर्ट मे पहुंचे है भाई लोग।

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  5. sabhi dharm ko khud ke nafe nuksaan ke hisab se dekhte hai ye takleef hai.fir agar koi bat ek jagah sahi hai to wo dusri jagah galat kaise ho sakti hai,uska karan hi hai dohri mansikta aur dogla vyowhar.

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  6. सुब्रमण्यम स्वामी ने जितने सरल तरीके से इस बात को डील किया है , यह मामला उतना सरल नहीं है | धर्म मनुष्य का ही बनाया हुआ ढांचा है , इसलिए जरुरत के मुताबिक़ उस ढाँचे में अनेक मर्तबे परिवर्तन हुए हैं और जब सुधारात्मक परिवर्तन संभव नहीं दिखे तो नए ढाँचे के निर्माण की कोशिशें हुईं और नए पंथों का प्रादुर्भाव हुआ | हर बार जब नए रास्ते भक्ति के तलाशे गए, एक बात समान रही कि पुराना पंथ अनुयायियों को शान्ति प्रदान करने के बजाय ,कुछ लोगों के हाथों में कैद होकर , अनुयायियों के बड़े हिस्से के शोषण के लिए प्रयोग में आने लगा |इतिहास के किसी भी कालखंड पर गौर करें , तो हम पायेंगे कि राज्य ने धर्म का इस्तेमाल अपने को मजबूत करने में उसी सीमा तक किया है , जब तक धर्म राज्य की इच्छाओं , आवश्यकताओं , विकास और उस वर्ग के विकास के रास्ते में नहीं आया , जिसकी नुमाइंदगी राज्य कर रहा है | जब कभी ऐसा हुआ है , स्वयम राज्य और प्रभुसत्ता में बैठे लोगों ने उसे किनारे कर दिया है |
    जहां तक किसी भी धर्म के आम लोगों का सवाल है , उस धर्म के किसी भी नियम या परंपरा के निर्माण में उनकी कोई भूमिका नहीं होती | वे केवल बताए रास्ते पर आँख मूंदकर इसलिए चलते हैं कि उन्हें अपने कष्टों से कुछ निजात मिलेगी , ऐसा उनका विशवास होता है | उन्हें धर्म के संचालक अथवा राज्य अपनी सुविधा के अनुसार तर्क देकर इस्तेमाल करते हैं | आज भी बिना मंदिरों के चक्कर काटे और बिना धूम धड़ाके के पुजा पाठ के धर्म का पालन करने वाले हर सम्प्रदाय में विशाल बहुमत में हैं और उन्हें इस तरह की कोई भी बात पसंद नहीं आती है , पर वे विध्वंसकारी ताकतों के सामने लाचार होकर चुप बैठ जाते हैं | सच तो यही है कि राज्य ने धर्म के साथ मिलकर हमेशा प्रभुसत्ता में बने हुए वर्ग के लिए आम लोगों का शोषण किया है और जब जरुरत पडी है , धर्म को भी रास्ता के किनारे लगा दिया है | यह विकास भी आम लोगों के शोषण के लिए किया जा रहा विकास है , जिसकी कीमत उन्हें कई कई बार चुकानी पड़ती है | एक उदाहरण काफी होगा ,एक सडक का निर्माण होता है , उसमें जनता से एकत्रित टेक्स का पैसा लगा है और फिर उसी सडक पर चलने के लिए हर बार टेक्स पटाना है | अब इसके लिए उनके रास्ते में
    चाहे मंदिर आये या मस्जिद या चर्च , वो सभी तोड़ देंगे | आज हम एक कुतर्कों के युग में जी रहे हैं , जहां शूडो बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी है , जो कुछ तार्किक और अच्छा करने के साथ साथ बहुत कुछ ऐसा अनर्गल भी उगल रही है , जो उसे नहीं उगलना चाहिए | और उससे भी बड़ी बात हमें उनकी बातों में नहीं आना चाहिए
    भारत में जो कुछ भी होना है भारत की परिस्थितियों के आधार पर ही होना है और जनता को इसमें बेवकूफ ही बनना है| बाबरी मस्जिद राज्य और धर्म की मिलीजुली भगत से गिराई गयी और सत्ता के अपने समीकरणों के चलते | अब उसमें औचित्य ढूँढने का मतलब है कि हम राज्य और धर्म के द्वारा जनता को बेवकूफ बनाने की साजिश में शामिल हो रहे हैं |

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  7. धर्म अधर्म ,नास्तिक-आस्तिक ,आस्था -अनास्था आदि विषयों से मानव शायद तभी से टकराता रहा है जबसे उसने सामूहिक रूप से रहना शुरू किया।समाजशास्त्री और धर्माचार्यों ने बहुत विचार किया है इस पर।प्रकृति के विकराल,अद्भुत और अपराजेय शक्ति के पीछे कोई न कोई सत्ता तो ज़रूर है,कोई तो है जो मेरी मदद करेगा इस अपराजेय सत्ता को पराजित करने में।शायद उसी सत्ता को मनुष्य ने ईश्वर नाम दिया और फिर वह ईश्वर मनुष्य से बडा और बडा होता चला गया।सनातन धर्म में तो 'यत धारयति स धर्मो"अर्थात धर्म जीवन शैली है ईश्वर को पाने की सीढी नही।धर्म जो जीवन जीने का ढंग था वह धीरे-धीरे जीवन पर छाता गया,जीवन को ही चलाने लगा धर्म मुख्य हो गया जीवन गौड।धर्म के लिये हजारों जीवनों की बलि चढाई जाने लगी।ये तो हुआ धर्म और आस्था के साथ और नास्तिक जिन्होने अपने को किसी सहारे से दूर रखा था जो सब कुछ स्वतः और प्राकृतिक ढंग से हुआ मानते थे वे कभी मार्क्स और माओ तो कभी भगतसिंह में सहारा ढूढने लगे।ये तो इतिहास के विद्यार्थी ही बता पायेंगे कि मारकाट आस्तिकों ने ज़्यादा मचायी या नास्तिकों ने।मजे की बात यह है कि दोनो ने ये काम मनुष्य और मनुष्यता के नाम पर किया पर लाभ हमेशा किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष ने उठाया।
    मेरे कुछ मित्रों को भगतसिंह का नाम इसमें शामिल करने पर आपत्ति हो सकती है पर उनका नाम कल ऐसे ही संदर्भ में उनके एक भक्त ने लिया था और शायद भगतसिंह का नाम उसमें शामिल ना होता तो मैं यह पोस्ट लिखता भी नहीं।
    मेरा यह मानना है कि जिस तरह गांधी सरनेम लगा लेने से हर व्यक्ति महात्मा नहीं हो जाता और गोडसे से नाथूराम वैसे ही भगतसिंह की दुहाई देकर नास्तिकता को जस्टीफाई नहीं किया जा सकता।हममें से बहुतों ने भगतसिंह का--'मैं नास्तिक क्यों हूं' पढा होगा ।अतः मै उसकी विषयवस्तु पर ना जाकर सिर्फ थोडी सी रोशनी भगतसिंह की नास्तिकता और चंद्रशेखर आज़ाद की आस्तिकता पर डालना चाहूंगा।
    जब चंद्रशेखर आज़ाद को उनकी अनुपस्थिति में क्रांतिकारी दल का नेता चुन लिया गया और दल को चलाने की ज़िम्मेदारी आज़ाद पर आ गयी तो सबने तय किया कि एक मठ का महंत मरने वाला है यदि पंडितजी उस महंत के चेले बन जाये और कुछ दिनों बाद महंत के मर जाने पर मठ की समपत्ति पर कब्ज़ा कर क्रांतिकारी कार्य में काम लाया जाये।आज़ाद ने पूरी निष्ठा से ६ महीने तक मठ के महंत और देवता दोनो की सेवा की पर महंत को मरता ना देख मठ छोडकर चले आये।
    दल में जब उन्हें भगतसिंह के मांसाहारी और नास्तिक होने की बात पता चली तो वे बडे पशोपेस में पड गये।पर
    हनुमान चालीसा का नियमित पाठ कर दंड पेलने वाले आज़ाद की आस्तिकता का भगतसिंह की नास्तिकता से समन्वय देखिये कि भगतसिंह की बनायी मांसाहारी बिरियानि से मांस के टुकडे सहज भाव से चुनकर भगतसिंह को पकडाने वाले उस कर्मकांडी ब्राह्मण के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आयी।जब भगतसिंह ने स्वयं असेमबली मे बम फेकने की ज़िद की तो आज़ाद ने कहा अभी संगठन को तुम्हारी जरुरत है पर भगतसिंह की ज़िद का मान रखते हुये आज़ाद की आस्तिकता और भगतसिंह की नास्तिकता में द्वंद्व नही हुआ।
    कहने का तात्पर्य यह है कि आज मीडिया के तमाम माध्यमों जिसमे सोशल मीडिया मे कुछ ज़्यादा ही धर्म और देश की फिक्र दिखाई पडती है ।वहां ईमानदारी से यह मूल्यांकन करने की ज़रूरत है कि लोग बहस के लिये बहस कर रहे हैं या फिर स्वयं को देश और धर्म का अलंबरदार साबित करने को।मेरी दृष्टि में तो वह ईश्वर भी निकृष्ट है जो मनुष्य को मान ना देता हो फिर उस मनुष्य से ,उस आस्था और अनास्था से कोई सहानुभूति कम से कम मुझे नही है जो निजी हित के लिये अपने को बुद्धिजीवी साबित करने के लिये भगतसिंह या गांधी की प्रशंसा करे या गाली

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  8. मस्जिद को धराशाई करने को तर्कसम्‍मत बनाने के प्रयास निन्‍दाजनक हैं , इतिहास में न जाने क्‍या क्‍या हुआ, समय को विपरीत दिशा में घुमाने का प्रयास आत्‍मघाती ही सिद्व होगा

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    1. मनोज बाबू स्वयं को सेकुलर सिध्द करने की जल्दीबाजी में मैने क्या लिखा है ये आप समझ ही नहीं पाये । मैने कहीं नहीं लिखा कि बाबरी मस्जिद ढहाया जाना उचित था । मैं केवल यह कह रहा हूँ कि मस्जिद का ढह जाना धार्मिक रूप से कोई मानवता पर दाग या राष्ट्रीय शर्म जैसी कोई स्थिति पैदा नहीं करता । हाँ इस पर हो रही उभयपक्षों की राजनीति निसंदेह राष्ट्रीय शर्म और मानवता पर कलंक है । कभी कभी हम खुद को धर्मनिर्पेक्ष साबित करने के लिए सही तथ्यों और हकीकत से भी शतुरमुर्ग जैसे मुँह फेर लेते हैं । ढाँचा को प्रशासन के द्वारा गिराया जाना था लेकिन जिस प्रकार उन्माद से गिराया गया वो जरूर गलत था । किंतु किसी ऐसे भवन को जिसमें वर्षों से नमाज अदा नहीं की जा रही हो गिराया जाना किसी भी स्थिति में धर्म विरोधी नहीं है ।

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    2. Jo swayam ko secular, arthaat "Dharmanirapeksh" kahate hai we log hee isaka virodh karanewaalon ka samarthan karenge. unhe dono shabdon ka arth hee pata naheen. Dharmanishth ise vikas hetu aawashyak vyawastha maatr kahenge.

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