छत्तीसगढ़
राज्य की राजधानी रायपुर से करीब तीन सौ अस्सी किलोमीटर दूर दंतेवाडा नगर स्थित
है। यहां के डंकिनी और शंखिनी नदियों के संगम पर माँ दंतेश्वरी का मंदिर
प्रस्थापित है। पुरातात्विक महत्व के इस मंदिर का पुनर्निर्माण महाराजा अन्नमदेव
द्वारा चौदहवीं शताब्दी में किया गया था। आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी
राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुवनेश्वरी देवी की
प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। एक दंतकथा के मुताबिक
वारंगल के राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो
कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े में सवार
होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और
स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें।
वरदान के अनुसार राजा ने वारंगल के गोदावरी के तट से उत्तर की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की । राजा रूद्र प्रताप
देव के अपने पीछे चली आ रही माता का अनुमान उनके पायल के घुँघरूओं से उनके साथ
होने का अनुमान लगा कर आगे बढ़ता गया । राजिम त्रिवेणी पर पैरी नदी तट की रेत पर
देवी के पैर पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब जाने के कारण बंद हो गई तो राजा ने
पीछे मुड़कर देखा तो देवी ने उसे अपने वचन का स्मरण कराया और आगे साथ चलने में
असमर्थता जाहिर की । राजा बड़ा दुखी हुआ किंतु देवी ने उसे एक पवित्र वस्त्र देकर
कहा कि ये वस्त्र जितनी भूमि ढकेगी वही तुम्हारे राज्य का क्षेत्र होगा । इस
प्रकार राजा ने वस्त्र फैला कर जितने क्षेत्र को ढका वही क्षेत्र पवित्र वस्त्र के
ढकने के कारण बस्तर कहलाया । तत्पश्चात देवी राजा रूद्र प्रताप के साथ वापस बड़े
डोंगर तक आई और राजा का तिलक लगाकर राज्याभिषेक किया और ये कहकर अंतर्ध्यान हो गई
कि मैं तुम्हे स्वप्न में दर्शन देकर बताऊँगी कि मैं कहाँ प्रकट होकर स्थापित
हुँगी । तब वहाँ तुम मेरी पूजा अर्चना की व्यवस्था करना ! फरसगाँव के निकट ग्राम बड़े
डोंगर में देवी दंतेश्वरी का प्राचीन मंदिर अवस्थित है । त्पश्चात राजा
रूद्रप्रताप देव ने राज्य की राजधानी ग्राम मधोता में स्थापित की एवं कालांतर में
उसके वंशज राजा दलपत देव ने स्थानांतरित कर जगदलपुर में की । आज भी राजवंश के नये
सदस्य के राज्याभिषेक के लिए ग्राम मधोता से पवित्र सिंदूर लाकर राजतिलक किये जाने
की परम्परा है ।
कुछ
समय पश्चात माँ दंतेश्वरी ने राजा के स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मैं दंतेवाड़ा
के शंकनी-डंकनी नदी के संगम पर स्थापित हूँ । कहा जाता है कि माई दंतेश्वरी की
प्रतिमा प्राक्टय मूर्ति है एवं गर्भ गृह विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है । शेष
मंदिर का निर्माण कालांतर में राजा द्वारा निर्मित किया गया ।
दंतेश्वरी
मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह
मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है।
दंतेवाड़ा
में माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह
भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य
और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग
में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो
चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है।
द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं
खड़े हैं जो चार हाथ युक्त हैं। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद
मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह
विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों
में प्रस्थापित है। मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश
प्रतिबंधित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ से
अड्ढवस्थित है। बत्तीस काष्ठड्ढ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के
प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। इसलिए गर्भगृह
में प्रवेश के दौरान धोती धारण करना अनिवार्य होता है। मांई जी का प्रतिदिन
श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है।
माँ
दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ
भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना
जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है
और लाखो श्रद्धालु उनके भक्त हैं। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की
आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। लगभग चार फीट ऊंची माँ
भुवनेश्वरी की अष्टड्ढभुजी प्रतिमा अद्वितीय है।
मंदिर के गर्भगृह में नौ ग्रहों
की प्रतिमाएं है। वहीं भगवान विष्णु अवतार नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की
प्रतिमाएं प्रस्थापित हैं। कहा जाता है कि माणिकेश्वरी मंदिर का निर्माण दसवीं
शताब्दी में हुआ। संस्कृति और परंपरा का प्रतीक यह छोटी माता का मंदिर नवरात्रि
में आस्था और विश्वास की ज्योति से जगमगा उठता है।
बहुत अच्छी सारगर्भित जानकारी ... इसे सिद्ध पीठ भी माना जाता है ... मान्यता है .. यहाँ सभी मनोकामनाएँ पूरी होती है / नवरात्रि में दूर दूर से लोग आकर ज्योति कलश स्थापित करते है .....
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