शनिवार, 26 जनवरी 2013

चिंतन शिविर की चिंता


हम- अभी आधे घण्टे से लाईट गुल थी ।
वो - गुल मतलब फूल ?
हम- अरे नहीं भाई
वो - नही , मतलब फूल नहीं तो क्या फ्लावर ???
हम - अरे नहीं बबलू भाई ..मेरा मतलब बिजली चली गई थी
वो -चली गई थी मतलब कहाँ ?  किसके साथ ?
हम -अब हमें क्या पता कहाँ गई थी? हमें बताकर कहाँ जाती है? 
वो तो फिर लौट कर आई ?
हम -- हाँ वही तो कह रहा हूँ पूरे पन्द्रह मिनट बाद आई ?
वो -तो फिर ज्यादा दूर नहीं, किसी पड़ोसी के घर गई होगी ?
हम -- अच्छा , आपको बहुत जानकारी है ।
वो -- हाँ , हमारी बिजली भी 15-20 मिनट में आ जाती है, पुछने पर बताती है पड़ोसी के यहाँ मोमबत्ती लेने गई थी ।
हम - अच्छा , काफी तेज है आपका पड़ोसी ? 
वो हाँ, काफी तेज, कहता है मुझे जिन्दगी में बहुत काम करने हैं, अभिसेक्स मोनू से भी ज्यादा तेज । 
हम
अच्छा फिर ठीक है, वो कुछ करे या ना करे कहीं का बक्ता जरूर बन जायेगा । 
वो
खैर छोड़ो, आप ये बताओ बिजली गई और आधे घण्टे लौट आई फिर क्या हुआ ? 
हम
इस बीच अंधेरे में हम पर आतंकी मच्छरों ने हमला बोल दिया ।
वो अच्छा , आपके यहाँ बिजली जाती है तो अंधेरा हो जाता है ? 
हम
हाँ भाई , क्यूँ आपके यहाँ नहीं होता क्या ? 
वो
नहीं, हमारी बिजली जिसके यहाँ जाती है उसके यहाँ अंधेरा हो जाता है । 
हम
फिर तो आपका पड़ोसी बहुत काम कर रहा है । आपके मोहल्ले में जल्दी ही कोई जज बनेगा ।  
वो चलिए छोड़िये उससे हमें क्या लेना देना ..वो जाने और उसका काम । आप बतायें फिर क्या हुआ ? 
हम
फिर क्या, हमने शबनम मौसी के स्टाईल में जितने को हो सका अपनी हथेलियों के बीच निपटाया ।
वो अच्छा तो इसमें नया क्या था ? 
हम
बिजली जब आई तब देखा हाथों में भगवा रंग के धब्बे थे । 
वो अरे लेकिन खून के धब्बे तो लाल होंगे ना ? 
हम
हमें मालूम है पिछली बार जब बिजली गई थी तब हमने लाल रंग देखकर यही कहा था साले माओवादी मच्छर .. रक्त पिपासू खूनी दरिन्दे । 
वो
फिर ?
हम फिर क्या...हमारी इकलौती जेएनयू रिटर्न कौमनष्टी सास ने इसे सुन लिया और हमें खूब लताड़ लगाकर हमसे कहा जिस प्राकृतिक पौष्टिक वनस्पतियों को खा खा कर तुमने अपने शरीर में 6 लीटर खून जमा कर लिये हो यदि ये कमजोर और झाड़ीवासी मच्छर अपने हक की दो बूँद खून तुम्हारे शरीर से चूस भी लिये इतना बखेड़ा । जानते हो जिन वनस्पतियों को तुमने खा-पी कर पचा लिया है और इतना  खून जमा कर रखा है उन वनस्पतियों पर पूरा अधिकार इन्ही मच्छरों का है क्योंकि उन झाड़ियों में आदिकाल से इनका आवास है और तुमने इसका घर उजाड़ कर अपना खून बढ़ाया है । 
वो अच्छा फिर तुमने क्या किया ? 
हम
हम और क्या करते , सजा के तौर पर सास को एक बनारसी साड़ी चन्दे में दी । 
वो - अच्छा तो फिर इस बार खून के धब्बे भगवा कैसे
? 
हम
इस बार जैसे ही बिजली गई, जेएनयू रिटर्न कौमनष्टी सास ने हमारी हथेलियों में हल्दी लगा दिया, बस फिर क्या था बिजली जब आई तो हथेलियों पर भगवा धब्बे थे । 

जेएनयू रिटर्न कौमनष्टी सास ने तत्काल हमारी निजी गृहमंत्री को सबूत दिखाकर बताया
– “देखो हाथों में भगवा धब्बे, अब ये साबित हो गया कि ये सारे हिन्दू मच्छर ही हैं ........"भगवा आतंकवादी 

मेरे 10 वर्षीय प्रथम निजीगुणसूत्र ने बताया है कि गृह मंत्री एक कागज पढ़ कर भाषण याद कर रही है और कालोनी के महिलाओं की रात्रिकालीन चिंतन शिविर में ऐलान करने वाली है -
 मेरे पास पक्के सबूत है कि कालोनी में भगवा हिन्दू मच्छरों का आतंक है और इन सबको कालोनी का अध्यक्ष सोहन भागमत ट्रेनिंग दे रहा है । पिछले महिने मौलवी साहब और जुम्मन चाचा की मलेरिया से हुई मौत दरअसल मौत नहीं, हत्या थी और जाँच में ये पुख्ता सबूत मिलें है कि ये भगवा मच्छरों का सुनियोजित षड़यंत्र था ।  

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कबीरी निन्दक


आमतौर पर ऐसा मान लिया जाता है कि कोई आपकी निन्दा इसलिए कर रहा है क्योंकि उसे आपसे ईर्ष्या है क्योंकि आपने जो मुकाम हासिल किया है उसे स्वयं हासिल ना कर पाने का मलाल है ।  ये बातें निचलें स्तर पर तो ठीक लगती है लेकिन व्यापक स्तर पर सतही है । 

एक आम भारतीय को प्रधानमंत्री , मंत्री या सरकारी उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति से क्या ईर्ष्या हो सकती है ? क्या वो इनकी निन्दा इसलिए कर रहा है क्योंकि वह खुद प्रधानमंत्री नहीं बन पाया । 


अब चूँकि मुख्यधारा की मीडिया पर व्यवसायिक घरानों का नियंत्रण है और इनमें क्या छपेगा या दिखाया जायेगा ये अब संपादक नहीं प्रबंधक तय करतें है तो उनसे जनभावनाओं की अपेक्षा करना बेमानी है और अपने भावनाओं की इसी उपेक्षा के कारण आमजन का रूझान सोशियल मीडिया के प्रति हुआ है । पंजीकृत बुद्धजीवी और नीतिनिर्धारक भले ही ना मानें पर आज के दौर में सोशियल मिडिया ही मुख्यधारा की मीडिया बन चुकी है। इसका प्रमाण यह है कि पत्र / इलेक्ट्रानिक मीडिया के मुख्य कर्ताधर्ता भी इसमें पूरी उर्जा से सक्रिय है और सरकारें भी इससे चिंतित दिखाई दे रहीं है ।   


मुख्य धारा की मीडिया बन चुकी सोशियल मिडिया में सरकारों और उच्च पदासीन लोगों के उपलब्धियों , विचारधाराओं पर चर्चा की बजाय लगभग शत प्रतिशत उनका निन्दा और उपहास ही किया जा रहा है । सरकारें इससे चिंतित भी हो उठतीं है और येन केन प्रकारेण इस पर अपना नियंत्रण भी चाहतीं है किंतु    को किसी ने भी ये नहीं सोचा कि आखिरे ये आक्रोश क्यूँ ?  


दरअसल आमजनता खुद रहनुमा नहीं बनना चाहती और ना ही उसे इस बात की ईर्ष्या है कि वो नहीं बन पाई । उसे अपने रहनुमाओं से फकत इतनी ही आस है कि वे उनके तकलीफों को दूर करेंगे और कम से कम बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करायेंगे ।   


आजादी के पैंसठ सालों में देश की जनता को पीने का पानी, बिजली और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवायें जैसी बुनियादी सुविधायें ही उपलब्ध नहीं है तो सड़के, रोजगार, सुरक्षा और अन्य भौतिक विकास की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है ।   


रहनुमाओं को इस बात पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि जिस जनता से वे जिन्दाबाद की अपेक्षा कर रहें हैं उन्हे निन्दक बनने को किसने मजबूर किया और ये मुगालता दूर कर लें कि जिस तरह वे अपनी जयजयकार लगवाने के लिए भाड़े पर लोगों को इकठ्ठा करते हैं और मीडिया पर पेड न्यूज चलवाते हैं वैसे ही सोशियल मीडिया में उनका उपहास उड़ाने के लिए भी कोई संगठन भाड़ा पर इन्हे लगा रखा होगा ।  


निन्दक होना भारतीय चरित्र है और भारतीय समाज में निन्दकों / आलोचको को एक सम्मान भी प्राप्त है । कमोबेश इसी भारतीय मानसिकता का पंजीकृत वामपंथी बुद्धजीवियों ने बखूबी फायदा भी उठाया है और बड़ी चालाकी से सत्ता से बाहर रहकर सत्तासुख भोगने का प्रमुख हथियार बना रखा है । लेकिन सोशियल मीडिया के ये निन्दक भाड़े के निन्दक नहीं है । ना तो इनका कोई हिडन ऐजेण्डा है और ना ही ये वामपंथी निन्दको जैसे सत्ता से बाहर रहकर सत्तासुख भोगने के लिए लालायित है । 


देश के कर्णधारों इन्हे अपना शत्रु नहीं बल्कि हितैषी और पथप्रदर्शक समझो और चिंतन करो कि क्यों तुम अपने उस पथ से भटक गये हो जिसके लिए राष्ट्र ने तुम्हे असीमीत अधिकार दिये हैं । याद रखो ये कोई वामपंथी निन्दक नहीं ये वो निन्दक हैं जिनके लिए ही कबीर ने कहा है ...  

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटीर छवाय, 
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय । 

शनिवार, 5 जनवरी 2013

स्लम क्रांति




मीडिया पर प्राईम टाईम पर प्रायोजित चिंतन शिविर नुमा बहसचर्चा में एक उँचे मकान के उत्तरी दिशा में सटकर बनी झोपड़ी का दोपहर में फोटो खींचकर एक बुद्धजीवी मय सबूत दलील दे रहे थे " देखो कैसे इन अमीरों ने देश के गरीबों के हक छीन कर रखा हुआ है । रोटी तो पहले से ही छीन ली अब तो सूरज की धूप भी अपने कब्जे में कर झोपड़ी तक पहुँचने नहीं देते । "

इधर कई मजदूर संगठन इसके लिए आन्दोलन को तैयार हो भारत बन्द का ऐलान कर दिया । लोग उस झोपड़ी के बाहर प्रदर्शन को पहुँचने लगे। 

इस बीच तीन हृदयरोगी प्रदर्शनकारी मीडिया कैमरे के सामने अपना चेहरा दिखाने की जद्दोजहद में हार्टअटैक आने से निपट गये । बाद में विपक्षियों ने इसे पुलिस और सरकार की बर्बरता घोषित कर उनके बलिदान को नमन किया और शहीद का दर्जा दिया गया । इधर बनाना आजमी ने अपना जन्मदिवस स्लम डे के रूप में मनाने के लिए स्पेशल डिजाईन का केक बनवाया ।


इन तमाम घटनाओं से उस गरीब की झोपड़ी यकबयक मीडिया आकर्षण की केन्द्र हो गई थी और वो झोपड़ी का मालिक रातों रात "नत्था"
  बन गया ।


आन्दोलन से उपजे बवाल के कारण “प्रशासन” ने “शासन” की कुर्सी की बचाने उँचे मकान की कुर्बानी लेकर उसे जमींदोज कर दिया । इस तरह "सत्य" की असत्य पर विजय हुई ।

देश भर के सभी बड़े शहरों के व्यस्ततम चौक चौराहों पर “जागरूक” नागरिकों द्वारा मोमबत्ती की एक बड़ी खेप जलाकर उत्सव मनाया गया । थूक कर बोलने वाले बख्तर साहब और खुजलीवाले कामेश भट्ट जैसे जाने माने समाज सेवकों ने इसे धर्म की अधर्म पर जीत घोषित करते हुए असली दशहरा मनाने की अपील की ।  आश्चर्यजनक रूप से इस घट्ना पर खुजलीवाल की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई । बाद में पता चला कि मकान मालिक “कबीर”  का अन-ऑफिसियल स्पांसर था । 

 कई दिनों बाद एक नवजवान उत्साही स्वतंत्र पत्रकार उस झोपड़ी के मालिक का साक्षात्कार लेने पहुँचा तो देखा कि उँचे मकान के स्थान पर आसपास की अन्य मकानो को अधिग्रहित कर एक आलीशान मायावी पार्क बन गया है और उसके बीचों बीच काली ग्रेनाईट के एक विशाल हाथी पर एक हाथ में बैग लटकाये महिला की संगमरमरी मूर्ति प्रतिस्थापित है और सूर्योदय के समय झोपड़ी पर इस मूर्ति के बैग की परछाई पड़ती है । 


साक्षात्कार के दौरान झोपड़ी में रहने वाले “नत्था” ने बताया कि जिस जमीन पर उसकी झोपड़ी और पार्क निर्मित है, उसका असली भू-स्वामी वही उँचे मकान वाला ही है लेकिन जब यह जमीन खाली पड़ी थी तो उसने जमीन के इस हिस्से में कब्जा कर अपनी झोपड़ी बना कर रह रहा है। बाद में मकान मालिक ने बैंक से लोन लेकर बाकी बची जमीन पर अपना मकान बनाया और झोपड़ी व मकान के बीच दीवार उठा कर अघोषित रूप से झोपड़ी वाले जमीन पर अपना मालिकाना दावा छोड़ दिया था । 


पत्रकार नौजवान था और निष्पक्ष भी किंतु अभी भी उसके अन्दर जेएनयू में ट्रांसप्लांट किये गये वामपंथी कीटाणु जागृत थे, इसलिए इस जानकारी को अपने मतलब की न समझकर उसने कहा - मुझे इस बात से मतलब नहीं है कि जमीन किसकी थी, तुम सिर्फ इतना बताओ कि क्या सचमुच तुम्हे सूरज की रोशनी रोके जाने का मलाल था या उससे कोई तकलीफ थी ?


नत्था ने कहा – अरे नहीं साहब, बल्कि मैं तो बहुत मजे में था । सुबह-शाम सूरज की मखमली किरणें तो मेरे घर पर आती ही थी और ये तो मेरे लिए सोने पर सुहागा था कि दोपहर की कड़ी धूप से मेरी झोपड़ी सुरक्षित रहती थी जिससे गर्मी में भी झोपड़ी में ठण्डक बनी रहती थी । अब तो गर्मी में सीधी धूप पड़ती है और पंखे से भी कोई राहत नहीं मिलती । हाँ सुबह-सुबह पार्क में लगी बहनजी की मूर्ति के पर्स की परछाई, बुद्ध के फोटो पर उगते सूरज की रोशनी पड़ने से रोकती है ।

कुछ इधर उधर की बातों के दरम्यान उसने चहकते हुए बताया कि पार्क बनने से अब यहाँ भीड़-भाड़ रहने लगी है । कुछ दिनों पहले रामविलास जी ने उससे इस झोपड़ी के बदले एक बढ़िया सर्वसुविधायुक्त 3 BHK डुप्लेक्स मकान दिलाने का वादा किया है । वे बता रहे थे कि वे जनता के सहुलियत के लिए सेवाभाव से यहाँ मल्टीप्लेक्स जैसा कुछ बनवाना चाह रहें है, जिससे प्रदेश का विकास होगा । मैं भी खुश हूँ कि मुझे इस कड़ी धूप से राहत मिल जायेगी और मेरे जमीन पर मल्टीप्लेक्स बनने से सभी लोगों को सुविधायें मिलेंगी और देश का विकास होगा ।

पत्रकार अब बड़ा असमंजस में था, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था । स्वचलित सा वह उठा और हाथ जोड़कर नत्था से विदा होने की अनुमति माँगी .. नत्था ने बड़े गर्मजोशी से हाथ मिलाकर कहा “लाल सलाम साहब”  ।