गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कबीरी निन्दक


आमतौर पर ऐसा मान लिया जाता है कि कोई आपकी निन्दा इसलिए कर रहा है क्योंकि उसे आपसे ईर्ष्या है क्योंकि आपने जो मुकाम हासिल किया है उसे स्वयं हासिल ना कर पाने का मलाल है ।  ये बातें निचलें स्तर पर तो ठीक लगती है लेकिन व्यापक स्तर पर सतही है । 

एक आम भारतीय को प्रधानमंत्री , मंत्री या सरकारी उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति से क्या ईर्ष्या हो सकती है ? क्या वो इनकी निन्दा इसलिए कर रहा है क्योंकि वह खुद प्रधानमंत्री नहीं बन पाया । 


अब चूँकि मुख्यधारा की मीडिया पर व्यवसायिक घरानों का नियंत्रण है और इनमें क्या छपेगा या दिखाया जायेगा ये अब संपादक नहीं प्रबंधक तय करतें है तो उनसे जनभावनाओं की अपेक्षा करना बेमानी है और अपने भावनाओं की इसी उपेक्षा के कारण आमजन का रूझान सोशियल मीडिया के प्रति हुआ है । पंजीकृत बुद्धजीवी और नीतिनिर्धारक भले ही ना मानें पर आज के दौर में सोशियल मिडिया ही मुख्यधारा की मीडिया बन चुकी है। इसका प्रमाण यह है कि पत्र / इलेक्ट्रानिक मीडिया के मुख्य कर्ताधर्ता भी इसमें पूरी उर्जा से सक्रिय है और सरकारें भी इससे चिंतित दिखाई दे रहीं है ।   


मुख्य धारा की मीडिया बन चुकी सोशियल मिडिया में सरकारों और उच्च पदासीन लोगों के उपलब्धियों , विचारधाराओं पर चर्चा की बजाय लगभग शत प्रतिशत उनका निन्दा और उपहास ही किया जा रहा है । सरकारें इससे चिंतित भी हो उठतीं है और येन केन प्रकारेण इस पर अपना नियंत्रण भी चाहतीं है किंतु    को किसी ने भी ये नहीं सोचा कि आखिरे ये आक्रोश क्यूँ ?  


दरअसल आमजनता खुद रहनुमा नहीं बनना चाहती और ना ही उसे इस बात की ईर्ष्या है कि वो नहीं बन पाई । उसे अपने रहनुमाओं से फकत इतनी ही आस है कि वे उनके तकलीफों को दूर करेंगे और कम से कम बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करायेंगे ।   


आजादी के पैंसठ सालों में देश की जनता को पीने का पानी, बिजली और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवायें जैसी बुनियादी सुविधायें ही उपलब्ध नहीं है तो सड़के, रोजगार, सुरक्षा और अन्य भौतिक विकास की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है ।   


रहनुमाओं को इस बात पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि जिस जनता से वे जिन्दाबाद की अपेक्षा कर रहें हैं उन्हे निन्दक बनने को किसने मजबूर किया और ये मुगालता दूर कर लें कि जिस तरह वे अपनी जयजयकार लगवाने के लिए भाड़े पर लोगों को इकठ्ठा करते हैं और मीडिया पर पेड न्यूज चलवाते हैं वैसे ही सोशियल मीडिया में उनका उपहास उड़ाने के लिए भी कोई संगठन भाड़ा पर इन्हे लगा रखा होगा ।  


निन्दक होना भारतीय चरित्र है और भारतीय समाज में निन्दकों / आलोचको को एक सम्मान भी प्राप्त है । कमोबेश इसी भारतीय मानसिकता का पंजीकृत वामपंथी बुद्धजीवियों ने बखूबी फायदा भी उठाया है और बड़ी चालाकी से सत्ता से बाहर रहकर सत्तासुख भोगने का प्रमुख हथियार बना रखा है । लेकिन सोशियल मीडिया के ये निन्दक भाड़े के निन्दक नहीं है । ना तो इनका कोई हिडन ऐजेण्डा है और ना ही ये वामपंथी निन्दको जैसे सत्ता से बाहर रहकर सत्तासुख भोगने के लिए लालायित है । 


देश के कर्णधारों इन्हे अपना शत्रु नहीं बल्कि हितैषी और पथप्रदर्शक समझो और चिंतन करो कि क्यों तुम अपने उस पथ से भटक गये हो जिसके लिए राष्ट्र ने तुम्हे असीमीत अधिकार दिये हैं । याद रखो ये कोई वामपंथी निन्दक नहीं ये वो निन्दक हैं जिनके लिए ही कबीर ने कहा है ...  

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटीर छवाय, 
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय । 

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