रविवार, 20 मई 2012

औसत का गणित


एक प्रसिध्द गणितज्ञ हुए । गणित की कई किताबें पढ़ी,शोध किया । फिर उन्होने औसत का सिध्दांत प्रतिपादित किया और प्रख्यात हुए । एक दिन अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ वे किसी दूसरे गाँव की ओर जा रहे थे । रास्ते में नदी पड़ी । उन्होने अपने परिवार और किताबों को किनारे रख पानी की गहराई मापने नदी में उतर पड़े । कई स्थानों की गहराई मापी और किनारे पर वापस आ गये । दूसरे चक्र में स्वयं की, अपने पत्नी एवं बच्चों की उँचाई नापी एवं आँकड़ों से औसत उँचाई ज्ञात की । फिर नदी में पानी की गहराई के मापों का माध्य ज्ञात कर औसत गहराई निकाल दोनो औसतों की तुलना की और पाया कि उँचाई का औसत पानी की गहराई के औसत से काफी अधिक है ।

उन्होने अपनी पत्नी से कहा हमारी औसतन उँचाई नदी की औसतन गहराई से काफी ज्यादा है अत: नदी पार करने में डूबने का कोई खतरा नहीं है और वे नदी में उतर गये । नदी प्राकृतिक रूप से किनारों पर उथली थी और मध्य की ओर गहरी होती जा रही थी । मध्य में पहुँचते पहुँचते  अचानक पीछे से पत्नी ने आवाज लगाई छोटा लड़का डूब रहा है । गणितज्ञ पलटा । एक पल उसे लगा जैसे सारा जीवन व्यर्थ हो गया है, इसलिए नहीं कि बच्चा डूब रहा है बल्कि इसलिए कि उसके जीवन भर के शोध पर प्रश्न चिन्ह लग गया था । आघात बड़ा जबरदस्त था, लेकिन उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था अतएव बदहवासी में बच्चे को बचाना छोड़ किनारे की ओर दौड़ा और अपने गणना की जाँच करता हुआ बड़बड़ाने लगा ये हो ही नहीं सकता की मेरा शोध गलत हो । मुझसे गणना में कहाँ चूक हो गई ।  

लेकिन सत्य तो यही था कि न तो शोध गलत था ना ही गणना गलत थी । यदि कुछ गलत था तो केवल उसका अनुप्रयोग । जीवन के गणित और किताबी गणित में कोई मेल नहीं है । जीवन में हमेशा दो और दो का जोड़ चार नहीं होता । किताबें, शोध, मनीषियों की बातें, जिंदगी जीने में सहायता कर सकती हैं लेकिन केवल उन्ही के सहारे अगर जिंदगी जीयेंगे तो हालात वही होंगे जो उस बच्चे का मँझधार में हुआ । जिंदगी को किताबों से हटाकर देखा जाना चाहिए । बुध्दिजीविता मानसिक संतुष्टि दे सकती है, अहम को तृप्त कर सकती है लेकिन खाने को दाने, तन ढकने को कपड़े और सर पर छत नहीं दे सकती । अगर ऐसा होता तो दुनिया में जितनी किताबें है उससे हर गरीब के लिए चार जोड़ी कपड़े सिल गये होते, हर घर में अनाज का भण्डार होता और तो और केवल अखबारों से ही कई मकान बना लिये गये होते ।

बस्तर में फैला नक्सलवाद भी इसी जद में आता है । तथाकथित मानवाधिकारी और समाजसेवी इसे उचित ठहराने के लिए कभी शोषण के खिलाफ विद्रोह, कभी अधिकारों के लिए युध्द कह महिमा मण्डित करने का प्रयास करते रहें है । वास्तव में इसका उन गरीब आदिवासियों से कोई सरोकार नहीं है । सरोकार है तो केवल अपनी दुकानदारी चलाने का ।

यद्यपि इस प्रभावित क्षेत्र में कई मोर्चों पर प्रशासनिक विफलता है और बुनियादी सुविधाओं का अभाव है तथा इसके कारण ही नक्सलवाद पोषित हो रहा है, लेकिन ये कहना कि इस क्षेत्र के समग्र विकास के लिए, शोषितों के मूलभूत अधिकारों के लिए और शोषण और दमन के विरूध्द नक्सलवाद है, कम से कम उन लोगों के लिए बेवकूफी है जो जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं । अगर सचमुच में ये शोषितों और आदिवासियों के हक के लिए लड़ रहें है तो फिर ये अपने ही मजलूम और निर्दोष आदिवासी की हत्या नहीं करते । ये सड़कों, स्कूल भवनों और अस्पतालों को क्षति नहीं पहुँचाते और सबसे बड़ी बात ये कि कम से कम बीमार स्कूली बच्चों को ले जा रही एम्बूलेंस पर तो गोली नहीं दागते ।

क्या ये अच्छा नहीं होता कि वे सभी सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को पूरे क्षेत्र में निर्बाध आने जाने देते और जो अपने कर्तव्यों का ठीक ढंग से निर्वहन ना कर रहा हो उसके खिलाफ कार्यवाही करते या आवाज उठाते । आज तक ऐसे कितने मौके आये हैं जब नक्सलियों ने भ्रष्ट और कामचोर अधिकारियों को प्रताड़ित किया है या उनकी जनअदालत में सुनवाई की है । कहीं ऐसा तो नहीं कि लाभ के हिस्से में उनका भी प्रतिशत तय हो ।

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