रविवार, 22 जुलाई 2012

अमरनाथ यात्रा - भाग 2


इतिहास के पन्नो से

श्री अमरनाथ यात्रा के उद्गम के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह ऐतिहासिक समय से संक्षिप्त व्यवधान के साथ चली आ रही है जबकि अन्य लोगों का कहना है कि यह 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में मलिकों या मुस्लिम गडरियों द्वारा पवित्र गुफा का पता लगाने के बाद शुरू हुई। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हज़ारों वर्षों से विद्यमान है तथा बाबा अमरनाथ दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। पुराण अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हज़ार गुना पुण्य देने वाले श्री अमरनाथ के दर्शन है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहाँ तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं।


कल्हण की 'राजतरंगिनी तरंग द्वितीय' में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ़ के शिवलिंग की पूजा किया करता था। बर्फ़ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। कश्मीर में भी यह आनन्दमय ग्रीष्म काल में प्रकट होता है। कल्हण ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी - सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी ।



कश्मीर के महान शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे, उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकार जोनरजा ने उल्लेख किया है।



अकबर के इतिहासकार अबुल फ़जल (16वीं शताब्दी) ने आइना-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है।

ऑक्सफ़ोर्ड में भारतीय इतिहास के लेखक विसेंट ए स्मिथ ने बरनियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का सम्पादन करते समय टिप्पणी की थी कि अमरनाथ गुफा आश्चर्यजनक जमाव से परिपूर्ण है जहां छत से पानी बूंद-बूंद करके गिरता रहता है और जमकर बर्फ़ के खंड का रूप ले लेता है। इसी की हिन्दू शिव की प्रतिमा के रूप में पूजा करते हैं।



स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज़ नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है।



लारेंस अपनी पुस्तक 'वैली ऑफ़ कश्मीर' में कहते हैं कि मट्टन के ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों में शामिल हो गए और बाद में बटकुट में मलिकों ने ज़िम्मेदारी संभाल ली क्योंकि मार्ग को बनाए रखना उनकी ज़िम्मेदारी है, वे ही गाइड के रूप में कार्य करते हैं और बीमारों, वृद्धों की सहायता करते हैं, साथ ही वे तीर्थ यात्रियों की जान व माल की सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मस्थल के चढावे का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के विभिन्न मंदिरों का रखरखाव करने वाले धमार्थ न्यास की ज़िम्मेदारी संभालने वाले मट्टन के ब्राह्मण और अमृतसर के गिरि महंत जो कश्मीर में सिक्खों की सत्ता शुरू होने के समय से आज तक मुख्यतीर्थ यात्रा के अग्रणी के रूप में 'छड़ी मुबारक' ले जाते हैं, चढावे का शेष हिस्सा लेते हैं।

अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे।





वर्तमान व्यवस्था -

मैंने सुन रखा है कि इस यात्रा की तैयारी एवं व्यवस्था अमरनाथ श्राईन बोर्ड करता है किंतु केवल मोबाईल कनेक्टिविटी सुविधा जो इस वर्ष ही प्रारंभ की गई है और केंद्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त की गई है, को छोड़ दें तो श्राईनबोर्ड के द्वारा केवल दान के रूपयों को समेटने के अलावा कोई सुविधा नहीं दी जा रही है । श्रध्दालुओं के ठहरने की टैण्ट व्यवस्था स्थानीय व्यवसायी लोगों के द्वारा शुल्क लेकर की जा रही है । हजारों लोगों के लिए शौचालय की भी व्यवस्था ऐसी स्थिति है कि आपातकालीन स्थिति में अगर कोई आ जाये तो शर्मिंदा होने के अलावा कोई चारा नहीं है ।



लेकिन इन सब के इतर सबसे बड़ी खामी है सुरक्षा व्यवस्था । मेरे सहयात्री हेमंत नायडू और अजय डाँगे जिन्हे कई बार इस यात्रा का अनुभव है, ने बताया कि पहले पूरी सुरक्षा की कमान सेना और बीएसएफ के हाथों होती थी, जो सुरक्षा मानकों को पूरी गंभीरता से पालन करते हुए सेवाभाव की भी अनूठी मिसाल पेश करते थे किंतु इस बार राज्य सरकार ने जबरिया राजनीति कर इसे अपनी स्थानीय पुलिस के हवाले कर दिया है । जिससे कई संकरी जगहों पर घण्टों पदयात्रियों के जाम की स्थिति निर्मित हो जाती है । सेना केवल यात्रा के दौरान अपनी उपस्थिति का एहसास ही करा रही है और उनके उपस्थिति से ही यात्रा में मानसिक सम्बल प्राप्त होता है वरना अव्यवस्था की स्थिति भयावह होती । काफी हद तक श्रध्दालु स्व अनुशासित रहते हैं जिससे स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में बनी रहती है लेकिन कभी कभी बर्फ के ग्लेशियर से बने पुल पर भी जाम की स्थिति बनती रहती है जिससे दबाव के कारण ग्लेशियर के टूटने पर सैकड़ों लोग पल भर में काल के ग्रास में समाहित हो सकते हैं । सेनापति ने बताया कि पिछले किसी यात्रा के दौरान उनके एक परिचित ने बीस फुट की दूरी से ही ऐसे एक ग्लेशियर पुल को टूटते देखा था जिसमें लगभग 200 लोग समाकर मारे गये ।



पहलगाम में चेक पोस्ट पर हमने अपना लगेज चैक करवाया लेकिन मेरे एक भारी सुटकेस को ड्रायवर ने ये कह कर गाड़ी में ही रखने को कहा कि मैं इसे पार करवाकर ले आऊँगा, बस आपसे कोई पूछे तो कह देना भारी है इसलिए गाड़ी में छोड दी और वह उसे बिना चेकिंग के पार करवाकर ले आया । मेरे नजरिये से तो यह सुविधा जनक था और उसमें कोई आपत्तिजनक सामग्री भी नहीं थी लेकिन सोचिए कोई इस तरह एक बड़ी अटैची में  कितना विस्फोटक पार कर सकता है ?

चंदनबाड़ी से पदयात्रा प्रारंभ करने की जाँच चौकी में श्राईन बोर्ड द्वारा जारी यात्रा पर्ची के एक हिस्से को फाड़कर रख लिया गया । उस पर्ची से ना तो मेरे चेहरे और जानकारी का मिलान किया गया न ही मेरे बैग की जाँच की गई । और उसके बाद पूरी यात्रा के दौरान कहीं पर भी किसी प्रकार की कोई जाँच नहीं की गई ।  इसका अर्थ यह है कि आप किसी की भी यात्रा पर्ची में प्रवेश कर यात्रा कर सकते हैं और कैसा भी सामग्री आसानी से यात्रा पर ले जा सकते हैं ।



पर्यावरण मित्र होने का दावा करने और नो प्लास्टिक जोन का बोर्ड लगाकर श्राईन बोर्ड स्वयं को महिमा मण्डित करने से नहीं चूक रहा किंतु रास्ते भर पालीथीन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है और खुलेआम पान मसाले के गुटके के पाऊच, सिगरेट और पतली पालीथिन के डिस्पोजल रैनकोट भारी मात्रा में बिक रहे थे, जो यकीकन उपयोग उपरांत घाटी में प्रदुषण फैला रहे थे । गुफा के पहले संगम टॉप पर जहाँ श्रध्दालु स्नान आदि कर दर्शन को जाते हैं किसी प्रकार का कोई शौचालय नहीं है । लोग बर्फीले ग्लेशियर पर खुले में ही शौच करते हैं, मुझे नहीं पता महिलाओं को कितनी तकलीफ का सामना करना पड़ता होगा । गुफा से पहले भी दर्शनार्थ लगी लाईन का नियंत्रण स्वयं श्रध्दालु ही कर रहे थे और स्थानीय पुलिस दर्शक बनी हुई नजर आई । घोड़ों, टट्टुओं और पालकियों के दर इस पर निर्भर थे कि कौन किस दर्शनार्थी को कितना लूट सकता है।



यदि देश के विभिन्न हिस्सों विशेषकर पंजाब , हरियाणा गुजरात और राजस्थान के वणिक भक्तों के द्वारा जगह जगह पर खाने के भण्डारे नहीं लगाये जाते तो गरीब यात्री मौसम, आक्सीजन और अन्य वजहों से नहीं भूख से ही मर जाता । इन भण्डारों के भोजन की गुणवत्ता और उससे भी बढ़कर उनका आग्रह और सेवाभाव , मैने अपने पूरे जीवन काल में कहीं नहीं देखा । अद्भुत और अतुलनीय आग्रह .. “आईये ना भोले प्लीज” । तमाम असुविधाओं और तकलीफों के बावजूद यही आग्रह दिनों दिन यात्रा में श्रध्दालुओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृध्दि कर रहा है और सच कहूँ तो मैं यदि दुबारा इस यात्रा में जाऊँगा तो इसका कारण बाबा बर्फानी के दर्शन से ज्यादा इन भण्डारो के सेवा और समर्पण भाव ही होगा । 

1 टिप्पणी:

  1. हम कितना भी कुछ कहते रहें, हिन्‍दू तीर्थस्‍थल अव्‍यवस्‍था से पूर्णतः परिपूर्ण रहते हैं, सरकार और राजनीति हमें न जाने कहां ले जाकर छोड़ेगी, इससे भी इतर अमरनाथ श्राइन बोर्ड का रूख, बहुत दुख होता है यह सुनकर कि इस अद्भुत यात्रा की यह दुर्गति, बाबा बर्फारी इन सियासतदानों को सद्बुबुद्वि दें, यही कामना है

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