मंगलवार, 27 अगस्त 2013

खाद्य सुरक्षा - गरीबों की या खुद की ?

खाद्य सुरक्षा विधेयक से कितने और कौन से “भूखों”  का पेट भरेगा ये तो वक्त ही बतायेगा लेकिन जितना मुझे अर्थशास्त्र का थोड़ा बहुत ज्ञान है उस आधार पर मेरे मन में एक शंका उठी । जिसका पंजीकृत अनर्थशास्त्रियों को छोड़कर कोई भी समाधान कर सके तो उसका स्वागत है ।

सामान्य सा अर्थशास्त्र का सिध्दांत है यदि सरकारी दुकानों में आवश्यक अनाज 1 रूपये किलो में मिलेगा तो खुले बाजार में मँहगे चाँवल/गेहूँ  की बिक्री में अन्यंत गिरावट आयेगी । जिसके फलस्वरूप यदि आपूर्ति यथावत चलती रहे तो माँग में कमी होने के कारण चाँवल/गेहूँ के मूल्य गिरावट होना लाजमी है ।

इस देश के जो गरीब किसान है वे अधिकांशत: चाँवल/गेहूँ ही पैदा करते हैं । ऐसे में देश के इन गरीब चाँवल/गेहूँ उत्पादक किसानों के पास दो ही रास्ते बच जायेंगे ।

या तो वे लागत मूल्य से भी सस्ते दामों पर अपना उत्पाद बाजार में बेचें या फिर खेती किसानी छोड़ किसी फैक्ट्री में मजदूरी करें और खुद को खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में समेंट लें ।


ये दोनो ही स्थिति देश के दीर्घकालिक हितों के लिए अत्यंत घातक है । यदि किसान खेतों में अनाज उगाना छोड़ देगा तो आने वाले दिनों में हम खाद्य सुरक्षा कानून के कारण ही खाद्य संकट को शर्तिया आमंत्रण देंगे और यदि किसान अपने उत्पाद लागत मूल्य से कम दामों पर बेचता है तो यह खाद्य सुरक्षा कानून उसके आत्महत्या करने के मार्ग को प्रशस्त करने वाला कानून कहलायेगा ।

इस महत्वाकांक्षी कानून को धरातल पर लागू करने के लिए जरूरी है कि सरकार चाँवल/गेहूँ और अन्य सब्सिडी में बाँटे जाने वाले अनाजों का इतना न्यूनतम खरीदी मूल्य निर्धारित करे कि किसान खेती करने के लिए प्रोत्साहित हो और उसके उत्पादों को यदि बाजार में खरीददार नहीं मिलता तो भोजन गारंटी के जैसा ही उसके उत्पादों को खरीदने की गारंटी की भी व्यवस्था करे ।
लेकिन यदि सरकार ऐसी व्यवस्था कर भी लेती है तो इस कानून के तहत बाँटे गये अनाज के सब्सिडी की राशि हेतु क्या प्रबंध है ? क्या इसके लिए फिर से उसी मध्यम वर्गीय लोगों को बलि का बकरा बनाया जाकर उनके जेब पर डाका डाला जायेगा ?

खैर भूखों की चिंता करने वाली उस करूणामयी सरकार से जनता को क्या उम्मीद करनी चाहिए जिसे सुप्रीम कोर्ट के सामने ये कहकर बेबसी और लाचारी दिखाई कि भले ही देश में लोग भूखों मरते रहें और हमारे गोदामों में अनाज सड़ते रहें पर हम उसे उन जरूरतमंद लोगों को बाँटने में असमर्थ हैं ।

सुनने में आया है कि इस बिल की मूल अवधारणा छत्तीसगढ़ के चाऊर वाले बाबा की सरकार से ली गई है । कितनी ली गई है ये तो विस्तार से पता नहीं पर हाल में ही छ ग सरकार ने राशन कार्डों में मुखिया के तौर पर घर की महिलाओं का नाम अंकित किया है जिसका प्रावधान इस बिल में भी है । लेकिन जिस तरह से छत्तीसगढ़ में पीडीएस सिस्टम है वैसा कोई सिस्टम पूरे देश में है ?

यदि हाँ तो बड़ी अच्छी बात है और यदि नहीं तो फिर इन मूलभूत प्रावधानों की व्यवस्था पहले किया जा कर फिर इस कानून को लागू किया जाना चाहिए वरना ये खाद्य सुरक्षा बिल गरीबों की बजाय अमीर बिचौलियों के खाद्य सुरक्षा का प्रबंध करेगी ।

मीलों हम आ गये मीलों हमें जाना है ...  बस वृत्ताकार रास्ते में देश को बढ़ाना है 

4 टिप्‍पणियां:

  1. मीलों हम आ गये मीलों हमें जाना है ... बस वृत्ताकार रास्ते में देश को बढ़ाना है

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  2. क्या गुरुदेव आप भी ,, कानून बनाना था बना दिया ,,उसका पालन जरुरी है का ......हाँ उसके नाम से खर्चा बताना जरुरी है .....

    (y)

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