गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

परम्परा की बासंतीफुहार फागुन मड़ई

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 388किमी दूर दक्षिणी छोर पर स्थित जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा के शंकिनी डंकिनी नदियों के संगम स्थल पर विराजित माँ दंतेश्वरी देवी का प्रसिध्द ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक प्राचीन शक्तिपीठ ।
 

इसी अधिष्ठात्री माँ दंतेश्वरी की छत्रछाया में आयोजित होता है दंतेवाड़ा का प्रसिध्द फागुन मंड़ई । बसंत ऋतु में आगमन पर सम्पूर्ण जनजीवन फागुन मंड़ई के सम्मोहन में बंधकर इस संगम पर इकठ्ठा हो जाता है ।


ऐसी मान्यता है कि शक्ति स्वरूपा माँ सती के इस स्थान पर दाँत गिरने के कारण इस देवी का नाम दंतेश्वरी एवं स्थान का नाम दंतेवाड़ा पड़ा । बस्तर महाराजा अन्नम देव ने इस शक्तिपीठ का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में करवाया । आदिवासी लोक संस्कृति , परम्पराओं एवं मान्यताओं को जीवित रखने हेतु राजा पुरूषोत्तम देव ने फागुन मंड़ई की शुरूआत कराई ।


फागुन मंड़ई के नाम से विख्यात इस वासंतिक पर्व की औपचारिक शुरूआत बसंत पंचमी के दिन मंदिर के प्रांगण में त्रिशूल स्तम्भ गाड़कर एवं माई जी के छत्र पर आम बौर चढ़ाकर की जाती है तथा फागुन मास के अंतिम दस दिनों में आयोजित होने वाला आदिवासी समाज की पारम्परिक देवभक्ति, आदिवासी संस्कृति, लोक नृत्यों का यह उत्सव अपने चरम पर होता है।


मंदिर के सामने स्थित मैदान मेंडका डोबरा में माँ दंतेश्वरी की कलश स्थापना के साथ ही इस उत्सव का शुभारंभ होता है जिसमें बस्तर संभाग एवं उड़ीसा के नवरंगपुर जिले के सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया जाकर सहभागी बनाया जाता है !


इस वर्ष यह आयोजन फाल्गुन शुक्ल षष्ठी संवत 2068 तदनुसार दिनांक 28/02/12 से 09/03/12 तक निर्धारित है ।


कलश स्थापना के दूसरे दिन ताड़फलंगी धुवानी विधान सम्पन्न किया जाता है जिसका अर्थ होता है ताड़ वृक्ष के पत्तों को धोना । ताड़ के इन पत्तों को माता तरई (माता का तालाब) में धोकर होलिका दहन के लिए सुरक्षित रखा जाता है । इस बीच माई जी की पालकी प्रतिदिन सायं मंदिर से नारायण मंदिर के लिए निकाली जाती है तत्पश्चात पुनः मंदिर वापस लाई जाती है तत्पश्चात विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं ।


तीसरे दिन खोर खुँदनी एवं चौथे दिन नाच मांडनी का कार्यक्रम होता है । नाच माण्डनी में पूजा स्थल पर मांदर, नगाड़े की थाप पर मंदिर के सेवादार एवं अन्य लोग माई दंतेश्वरी के सम्मुख नृत्य करते हैं । आदिम संस्कृति के मेलमिलाप,हॅंसी ठिठोली एवं उल्लास का वातावरण पूरे उत्सव के दौरान अपने चरम पर रहती है ।


अगले चार दिनों तक लमहा मार, कोडरीमार, चीतलमार एवं गँवरमार के रूप में शिकार नृत्यों का आयोजन सम्पन्न होता है । जिसमें गँवरमार मेले का मुख्य आकर्षण होता है जो रातभर चलता है ।



इन आयोजनो को देखने एवं सम्मिलित होने हजारों की संख्या में ग्रामीण एकत्रित होते हैं । आदिवासीयों में आखेट नृत्यों की परम्परा काफी प्राचीन है जो कि उनमें परस्पर सहयोग के पारम्परिक आखेट जीवन को रेखांकित करती है । जीवन के प्रत्येक क्षण को कला में परिवर्तित कर लोकसंस्कृति को जीवित रखने का यह प्रयास इन जन-जातियों की प्रमुख विशेषता है ।


आखेट नृत्यों के अलावा आँवरामार का भी आयोजन किया जाता है । उस दिन माई जी की पालकी पर आँवले का फल चढ़ाया जाता है । मंड़ई देखने आये जन समूह एवं पुजारी, सेवादार, बारहलंकवार इत्यादि दो समूहों में विभक्त होकर एक दूसरे पर इसी आँवले से प्रहार करते हैं । ऐसी मान्यता है कि आँवरामार विधान के दौरान प्रसाद स्वरूप चढ़े इस फल की मार यदि किसी के शरीर पर पड़ती है तो वर्ष भर वो निरोगी रहता है ।


त्रयोदशी को ताड़फलंगी विधान द्वारा सुरक्षित ताड़ के पत्तों से होलिका दहन कार्यक्रम सम्पन्न किया जाता है । मंडई के अंतिम चरण में चतुर्दशी के दिन रंग भंग ( गुलाल-अबीर ) उत्सव मना कर सभी आमंत्रित देवी देवताओं का पादुका पूजन किया जाता है तत्पश्चात् उन्हें भावभीनी बिदाई दी जाती है ।



गँवर मार के दूसरे दिन मंडई का उत्सव होता है जिसमें पुजारी द्वारा दोनो हाथों में माईजी के छत्रों को थामें हुए कुर्सी से बने पालकी में बिठाया जाता है तथा सारे नगर का भ्रमण कराया जाता है । मंड़ई बुधवार के दिन ही आयोजित किया जाता है एवं उसके एक दिन पहले मंगलवार को गँवरमार का आयोजन किये जाने की परम्परा है । अतः इन दोनो कार्यक्रमों को मंगलवार एवं बुधवार के दिनों में आयोजित किये जाने हेतु उत्सव के क्रम में फेरबदल भी किया जाता है ।



कैसे पँहुचें ….... छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर देश के अन्य भागों से हवाई, रेल तथा सड़क मार्गों से सुव्यवस्थित जुड़ा हुआ है । रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर से दंतेवाड़ा के लिए सड़क मार्ग द्वारा बहुतायत में लक्जरी स्लीपर बसों का संचालन होता है । प्राइवेट टैक्सी द्वारा भी 7 घण्टे की यात्रा द्वारा रायपुर से पहुँचा जा सकता है । रेल यात्री विशाखापट्नम से भी किरंदुल पैसेन्जर से यहाँ पहुँच सकते हैं ।



कहाँ रूकें .......... माँ दंतेश्वरी के दो धर्मशाला निर्मित है जिनमें नाममात्र शुल्क अदा कर ठहरा जा सकता है । इसके अतिरिक्त होटल मधुबन एवं विभिन्न विभागों के सरकारी विश्राम गृह भी हैं ।

 

अन्य समीपस्थ दर्शनीय स्थल - बारसूर (30किमी) , लौहनगरी बैलाडीला (30किमी) , चित्रकूट जलप्रपात ( 75किमी) तीरथगढ़ जलप्रपात एवं कुटुमसर गुफा ( 80किमी ) ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बढिया जानकारी मां दंतेश्‍वरी मंदिर और इससे जुडे आयोजन की।
    कोशिश करूंगा आने की.........
    आभार।

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  2. आपकी यह जानकारी कल के चर्चा मंच पे राखी जा रही है ,....

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