बुधवार, 28 मार्च 2012

सरदार और असरदार अर्थशास्त्र

कल जरा फुर्सत मिली तो लोकसभा में बजट पर चर्चा सुनने लगा ! शाम 3.30 को छ बार बजट पेश कर चुके पूर्व वित्त मंत्री और हजारीबाज ( झारखण्ड ) से वर्तमान सांसद यशवंत सिन्हा जी का अभिभाषण और उसके बाद वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी का बयान सुना ! सबसे पहले तो इस बात की खुशी मिली कि संसद में इन डेढ़ घण्टों में बिना कोई शोर शराबे के गंभीर और सार्थक परिचर्चा सुनने को मिली ! प्रणव दा निसंदेह  UPA  सरकार में सबसे योग्य और निर्विवाद मंत्री है जिनका विरोधी भी सम्मान करतें है !
उन्होने बड़ी गम्भीरता से इस बात पर जोर दिया कि देश की अर्थव्यवस्था पर पेट्रोलियम पदार्थों का काफी असर पड़ता है और पेट्रोलियम पदार्थ का अधिकांश मात्रा आयात की जाती है ! अन्य चीजें जो भारत में उत्पादित नहीं होती है उन्हे आयातित किया जाता है और जो चीजें निर्यात की जातीं है उसका मूल्य भी विदेशी बाजार ही तय करतें है अत: ये बिल्कुल ठीक है कि मँहगाई के निर्धारण में विदेशी बाजार के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता ! सरकार को अपने खर्चे और अन्य विकास कार्यों के लिए भी राशि आवश्यक होती है जिसे उसे टैक्स के जरिये हासिल करने के अलावा कोई बड़ा विकल्प नहीं है !
लेकिन कोई भी इस बात से असहमत नही होगा पर यदि इन विकास कार्यों पर खर्च की जाने वाली राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाय तो देश के टैक्स पेयर जनता का ये शोषण नहीं तो और क्या है और इस शोषण की जिम्मेदारी कौन लेगा ! NRHM , NRGA जैसी योजनाओं में होने वाले करोड़ों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी किसकी है ! क्या टैक्स बढ़ाने की बजाय इन भ्रष्टाचारों पर अंकुश लगाकर देश का फिजूल व्यय कम नहीं किया जा सकता !
अर्थशास्त्र का नियम यदि ये कहता है कि व्यय की पूर्ति हेतु आय बढ़ाया जाना आवश्यक है तो क्या ये नियम अर्थशास्त्र से बाहर है कि आय ना बढ़ाकर फिजूल खर्ची और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने वाली राशि को रोककर व्यय कम किया जाय !


सीधा सा अर्थशास्त्र है! ये मुझ जैसे सामान्य अर्थशास्त्र की जानकारी रखने वाले बस्तरिया को समझ में तो आती है लेकिन हार्वर्ड शिक्षित सरदारों के पल्ले नहीं पड़ती ! क्या हार्वर्ड मे अर्थशास्त्र का ये दूसरा नियम नहीं पढ़ाया जाता ! सरकार का काम केवल योजना बना कर पैसे खर्च करना ही नहीं वरन उस पैसे से कितनी उत्पादकता हुई और कितना पैसे का उपयोग् हुआ ये भी सुनिश्चित करना है !

देश में मंहगाई कम करने का ये तरीका भी है जो इस अनपढ़ जंगली बस्तरिया नक्सली का सिध्दांत है ! हार्वड के अर्थशास्त्री तो अपने ज्ञान में फेल हो चुके हैं तो इस अर्थशास्त्री के सिद्धांत पर अमल करने में क्या जाता है ! पता नहीं मेरी शिक्षा और सिध्दांत गलत है या सही पर मेरा बजट तो इसी दूसरे सिध्दांत पर टिका हुआ है और आज 19 वर्षों से कभी घाटे का बजट पेश नहीं हुआ है !! जय हो !!

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