शुक्रवार, 16 मार्च 2012

जन्मदिन मुबारक हो दादू


बीस हजार की आबादी वाला नगरीय संस्कृति को आत्मसात करता एक अर्धविकसित एक कस्बा ..  पद्मनाभपुर ! महाराज भीखम सिंह कस्बे के मालगुजार हैं ! विरासत में पुरखों ने इतनी सम्पत्ति छोड़ रखी है कि सात पुश्तों तक कुछ काम करने की आवश्यकता ही नहीं ! अतीत की वैभव से आज भी दमकती शानदार हवेली ! हवेली के  सामने दस एकड़ में फैली फूलों की बगिया, सैकड़ों वफादार नौकरचाकर, दिन रात सेवा में इस कदर तत्पर है कि उनका वश चलता तो ईश्वर से महाराज की सारी तकलीफें अपने लिए माँग लेते, और हों भी क्यों न ?  इतना सबकुछ होने के बावजूद महाराज में तिल मात्र का भी अहंकार नहीं ! नौकर-चाकरों को परिवार के सदस्यों सा स्नेह, प्यार, दुलार दिया करते हैं ! उनके हर सुख-दुख में, रीति रिवाजों में छूआछूत, भेदभाव भूलकर स्वयं सम्मिलित होते हैं ! 

अभी पिछले दिनों ही महाराज ने कस्बे की तीन दलित निर्धन कन्याओं के विवाह का सारा खर्च उठाया था ! विवाह भी ऐसी शानदार और शाही कि आसपास के सारे छत्तीस गाँवो के लोगों ने देखा और मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की ! महाराज ने खुद बारातियों का स्वागत किया और पूरे समय ऐसे व्यस्त रहे जैसे उनके स्वयं की बिटिया की शादी हो ! सारा कस्बा उन्हे भगवान की तरह पूजता था ! वे लोगों के लिए थे भी दयानिधि ! सारा जीवन लोगों के दुखदर्द बाँटने और पीड़ा हरने में निस्वार्थ भाव से समर्पित था !

महाराज भीखम सिंह शरीर से भले ही पतले दुबले कृशकाय हों लेकिन चेहरे में ऐसी दबंगता और गंभीरता की लोग सम्मान के साथ साथ भय भी खाते थे ! किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनके सामने नजरें उठाकर जबान चलायें ! अजीब शख्सियत थी उनकी इतने उदार होने के बावजूद भी कभी किसी से विनोद या हास परिहास नहीं करते थे ! शायद यही कारण है कि लोग उनसे खौफ भी खाते थे !

लेकिन इससे उलट गाँव के बच्चों का सबसे प्रिय पात्र अगर कोई था तो वो महाराज ही थे ! बच्चे उनकी धोती भी खींचकर भाग जाते थे लेकिन वो गुस्सा होने के प्रयास में असफल हो जाते और चेहरे पर दुर्लभ सी हँसी आने से नहीं रोक पाते ! बच्चों के सामने वे खुद को असहाय पाते थे ! सारी रौबदारी यूँ गायब हो जाती जैसे उषा की किरणों को पाकर फूल पर से ओस की बूँदे ! 

इतना वैभव होने के बावजूद भी महाराज की आँखों में हरदम एक अजीब उदासी छाई रहती है लेकिन कभी वे उसे जाहिर नहीं करते ! इसका कारण भी सभी को पता था ! उनकी बगिया में पूरी दुनिया के सारे किस्म के फूल होने के बावजूद उनके अपने जीवन बगिया के आँगन में कोई नन्हा फूल नहीं था ! विवाह के बाईस वर्ष बाद भी उनकी गोद सूनी थी ! इतने सम्मान, उपाधियों के बावजूद उन्हे पिता कह कर पुकारने वाला कोई नहीं था ! यही गम उन्हे अंदर ही अंदर दीमक की तरह खाये जाती थी !

धीरे धीरे उन्होने इसे नियती मानकर कस्बे के बच्चों में अपनी खुशी ढूँढने लगे थे ! शायद यही कारण था कि बच्चों के आगे उनकी सारी गंभीरता, सारी दबंगई गायब हो जातीं और वे खुद बच्चों से हार जाने में अपनी जीत समझते थे ! सारे बच्चे उन्हे बाबा कहकर पुकारते थे और यही वो शब्द था जिसके कारण उनकी साँसे चल रही थी वरना जीने का और कोई मकसद तो बचा नहीं था !  तमाम अच्छाईयों के बावजूद महाराज की सबसे बड़ी कमजोरी थी उनके बागीचे के फूल ! मजाल है कोई सपने में भी उनके बागीचे के फूलों को हाथ लगाकर देखे !

महाराज का सबसे विश्वस्त और वफादार नौकर है रामू काका, जिसने महाराज को बचपने में गोद में खिलाया है ! महाराज उसे बहुत सम्मान करते थे और रामू काका इस बुढ़ापे में भी अपना भरा पूरा परिवार छोड़कर महाराज की हवेली में ही रहता और महाराज की देखभाल करता ! रामू काका का एक नाती भी है हरिया ! हरिया रोज सुबह अपने घर से हवेली आ जाता और फिर यहीं खेलता फिर स्कूल जा कर पुन: स्कूल से हवेली आकर देर शाम तक रहता ! रात उसके पिता आकर उसे जबरदस्ती ले जाते ! जाता भी क्यूँ पूरी हवेली में वो ही अकेला शख्स था जिसे महाराज के किसी भी निजी सामान को भी छूने, तोड़ने, फेंकने की इजाजत थी ! पूरे समय धमाचौकड़ी मचाता ! मजाल है कोई महाराज के सामने उसे टोक दे !

पूरी दुनिया में हरिया ही वो एकमात्र शख्स है जो महाराज को दादू कहता था और महाराज उसे हरी कह पुकारते थे ! उसी ने महाराज के धोती खींचने की परम्परा भी प्रारंभ की थी ! उसका दैनिक नित्यकर्म था महाराज की धोती खींचना या पीछे से कान मरोड़ना ! महाराज उसे पकड़ने दौड़ायेंगे, वो भागकर बागीचे में जाकर घुस जायेगा और फिर फूल तोड़ने की धमकी देगा ! महाराज उससे फूल ना तोड़ने और बाहर निकलने की मनुहार करेंगे फिर इसके लिए सौदेबाजी होगी ! हरिया को कुछ पैसे मिलते फिर वो स्कूल जाता ! हरिया महाराज की इस फूल ना तोड़ने वाली कमजोरी से भली भाँति परिचित था इसलिए उसे जब-जब जेबखर्च चाहिए होता वो इसी तरह बागीचे में फूल तोड़ने की धमकी देकर महाराज को ब्लैकमेल करता था !

रविवार का दिन है ! आज एक अनहोनी हो गई ! पूरी हवेली में अजीब सी बैचैनी और खामोशी छाई हुई है ! यूँ लग रहा था जैसे कोई सूनामी आकर चली गई हो ! शाम को महाराज को अपने बगीचे में टहलते समय पौधों की डालियों से कुछ फूल गायब दिखे ! टहनियाँ साफ साफ चुगली कर रही थीं कि किसी ने वहाँ से फूलों को चुराया है ! खबर कस्बे में जंगल की आग की  तरह फैल गई !

आज हरिया भी धोती खींचकर अपनी वसूली करने नहीं आया था ! किसी ने आकर बताया हरिया ने ही बागीचे से फूल तोड़ा है ! महाराज क्रोध से ऐसे आग बबूले हो उठे थे जैसे जमीन फट कर आसमान को निगलने वाली हो ! “हरिया जहाँ भी हो फौरन पकड़ कर मेरे सामने लाओ” महाराज ने चीखते हुए आदेश दिया !

पहली बार महाराज ने हरिया को हरी ना कह हरिया कहा था ! रामू काका ने हरिया को महाराज के सामने पेश किया ! हरिया के दोनो हाथ पीछे की ओर छुपे हुए थे ! उसे अचानक सामने देख महाराज अपना आपा खो बैठे और बिना कुछ बोले उसके गालों पर तड़ातड़ कई थप्पड़ जड़ दिये ! हरिया के गालों में महाराज के उँगलियों के निशान यूँ उभर आये जैसे किसी जलजले के बाद मलबा दिखाई देता हो ! हाथों ने थक कर जब और प्रहार करने से इंकार कर दिया तो बदहवास से चीख कर बोले “बता तेरी इतनी हिम्मत कैसे हुई मेरे फूलों को छूने की”

सारा कस्बा हवेली में जमा था लेकिन सन्नाटा यूँ पसरा हुआ था जैसे कोई वीरान बियाबान हो ! हरिया ने सिसकते हुए अपने दोनो हाथ आगे कर उन्ही फूलों का गुलदस्ता महाराज की ओर बढ़ाया जिसे उसने तोड़ने का दुस्साहस किया था और काँपते होंठों से कहा ......   “ जन्मदिन मुबारक हो दादू ”  

इतना सुनते ही महाराज को लगा जैसे उन पर कोई बज्रपात हुआ हो ! जोर से चीख कर बस इतना ही कहा मुझे अकेला छोड़ दो ! अगले ही पल हरिया समेत पूरा कस्बा वहाँ से जा चुका था !

रात घिर आयी थी ! हवेली की बाहरी बत्तियाँ भी आज नहीं जली थी ! रामू काका भोजन के आमंत्रण हेतु महाराज के कमरे में दाखिल हुआ ! दरवाजा पहले से ही खुला हुआ पर महाराज अपने कक्ष में नहीं थे ! उन्हे ढूँढते हुए बागीचे की ओर निकल पड़ा ! पूर्णिमा की चाँदनी बागीचे में फैली तो हुई थी पर दूर से कुछ साफ साफ नजर नहीं आ रहा था !
रामू काका जब बागीचे के निकट पहुँचा तो अचानक उसके मुँह से चीख निकल आयी ! उसकी चीख सुनकर पूरी हवेली इकठ्ठी हो गई !

बाहर आँगन की बत्तियाँ जलाई गईं तो देखा सारा बागीचा तहस नहस पड़ा हुआ है ! सारे पौधे किसी ने उखाड़ फेंके थे ! बागीचे के बीचोंबीच बने फव्वारे पर महाराज अर्ध चेतन से गिरे हुये है ! पास जाकर देखा तो उनके हाथों में हरिया का वही गुलदस्ता, आँखों में अश्रु की अविरल धारा बह रही हैं और सांसे उखड़ती चली जा रही थी ! रामू काका ने उनका सिर अपनी गोद में उठाया और धीरे से पुकारा “महाराज” ! किसी तरह महाराज ने आँखे खोलीं और कहा “ हरी कहाँ है ” ! हरिया उनके पास ही खड़ा था, सामने आया तो महाराज ने उसे जोर से भींच कर छाती से लगाया और कहा “हो सके तो अपने इस बेरहम दादू को मॉफ कर देना मेरे लाल ” !  हरिया कहता भी क्या, इतनी छोटी सी उम्र में भी उसे अपने गालों पर पड़े निशानो की कीमत का पता चल गया था ! उसके आँख से सुबह की मार के आँसू अब बह रहे थे पर जो कीमत उसे इस मार के बदले मिली थी उसके लिए वो रोज ऐसी मार खाने के लिए मन ही मन ईश्वर से याचना कर रहा था !

अजीब नजारा था दोनों की आँखो से अविरल अश्रु बह रहे थे और दोनो ही एक दूसरे को ना रोने की समझाईश दे रहे थे ! और दोनो की ये स्थिति देखकर पूरी हवेली के लोग रो रहे थे ! पर सभी के आँखों में वही आँसू थे जो कमोबेश अत्यधिक खुशी के क्षणोँ में अनायास ही सबके ये वहीं आँखों से निकल आते हैं !

सभी ने समवेत स्वर में कहा " जन्मदिन की बधाई हो महाराज "  

13 टिप्‍पणियां:

  1. भावुकता से भरी रचना।
    स्‍नेह का और अपनेपन का कोई मोल नहीं होता।

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    1. आपके निर्देश पर अंत को बदल कर सुखद किया है ! अंतिम पैरा को पुन: पढ़ने का कष्ट करें :)

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  3. अदभुत बेहतरीन रचना निश्चित ही छत्तीशगढ़ के साहित्यिक बगीचे मे एक नया फ़ूल खिला है।

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  4. ये लेखन शैली बहुत ही अच्छी है, कथा के तो क्या कहने.

    पर ये बाद में महाराज को मुखाग्नि क्यों दिलवा दी, सच कहते हैं लोग, दुनिया बहुत बेरहम है, और अब लेखक भी हो गए, जब तक आँख से पानी न छीन लें चैन ही नहीं मिलता, भैया, हरिया पढ़ा लिखा हो तो उत्तर प्रदेश भेज देना, महाराज तो रहे नहीं.... बेरोजगारी भत्ते से गुजारा तो कर लेगा......

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    1. अंत को जरा बदलकर सुखद बनाने की कोशिश की है ! पढ़कर प्रतिक्रिया देने का कष्ट करें :)

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    2. Ye vyaktigat taur par mujhe pahle se adhik achcha laga..... hindi kathanak sukhant ke liye jaane jaate hain......JAY HO...

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  5. दुखद एवम मार्मिक अंत बहुत भावप्रधान कहानी

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