शनिवार, 11 अगस्त 2012

अमरनाथ यात्रा - भाग 3, संस्मरण ( द्वितीय किश्त)

गतांक ( संस्मरण ,प्रथम किश्त) से आगे ....

हमारी लौहपथ सहस्त्रचक्र धारिणी निर्धारित समय 4 जुलाई की रात 9.30 को पर जम्मू स्टेशन पर खड़ी हो चुकी थी । पूर्व से अनुबंधित हमारी अमरनाथ यात्रा के वाहन प्रबंधक ज्ञान शर्मा जी का प्रतिनिधि हमारे स्वागत के लिए स्टेशन पर मौजूद था । उसने हमें एक नैसर्गिक वायु से परिपूर्ण पुरातात्विक वाहन में जिसके सभी लौह अवयव चीख-चीख कर अपने अस्तित्व का बोध करा रहे थे, रात्रि विश्राम के लिए जम्मू कश्मीर पर्यटन बोर्ड के विश्राम गृह ले गया । जहाँ सबने अपने सामान को प्रतिस्थापित किया तो मैंने सोचा कि घड़ी में 8 पीएम बजाऊँ लेकिन अजय भाई के चेहरे पर किसी कारणवश 12 बजे थे सो मैंने अपने कोमल इच्छाओं को निर्दयता से मसलते हुए उनके साथ रात्रि भोज हेतु निकल पड़ा किंतु रात्रि के 11.30 बजे होने के कारण उत्तम भोजन उपलब्ध नहीं हो सका अतएव हमने जम्मू में दक्षिण भारतीय दोसा को उदरपूर्ति की सामग्री बनाना उचित समझा ।


 

सुबह 7 बजे हमारी निर्धारित टैम्पो ट्रव्हलर विश्राम गृह के सामने शर्मा जी के साथ प्रतीक्षारत खड़ी थी । वाहन चालक एक अति उत्साही नौजवान सन्नी शर्मा थे जिनका निजी मत था कि चालक सदैव सवारी से होशियार होता है । उसने गाड़ी स्टार्ट करते ही चेतावनी भरे लहजे में निवेदन किया- साहब मैं ना तो लड़ाई झगड़ा करता हूँ ना ही यात्रियों से पसंद करता हूँ । सेनापति का मूड उखड़ गया, कहा कि तुम्हे क्या हम झगड़ालु लगते हैं, फिर वो सफाई में कहने लगा कि बिहार, बंगाल और छतीसगढ़ के लोग जरा ज्यादा झगड़ालु होते हैं । मुझे उसके द्वारा बिहार और छतीसगढ़ की तुलना जरा समझ नहीं आई। लगता है किसी छत्तीसगढ़िये ने उसे उसका मूल इतिहास बताया होगा जिससे उसका मानसिक भूगोल सदा के लिए बिगड़ गया था । अजय भाई ने स्थिति को सम्भाला और कहा तुम्हे फिक्र करने की जरूरत नही । तुम्हारा हमसे झगड़ा एक तो होगा ही नहीं और यदि हो गया तो फिर तुम भविष्य में किसी से झगड़ा करने के लायक नहीं रहोगे ।





जम्मू श्रीनगर हाईवे पर अब हमारी निकल पड़ी थी । कभी जाम में फँसने , कभी चाय की तलब और कभी लघु शंकाओं को दूर करने के लिए गाड़ी कई जगह रूक-रूक विशुध्द सरकारी फाईल की तरह अपने गंतव्य की ओर सरक रही थी ।




सनी शर्मा गाड़ी बड़ी सुरक्षित चला रहा था पर उसकी चाल किसी भेड़ चरित्र की तरह थी, जैसे उसने कसम खाई हो कि किसी को ओव्हरटेक नहीं करूँगा । उसने 14 घण्टे गाड़ी चला कर पहलगाम तक सकुशल पहुँचाया किंतु गाड़ी में लगे म्यूजिक सिस्टम की संगीत से ज्यादा उसकी खुद की रेडियो कामेंट्री ज्यादा और लगातार बजती रही । पहलगाम पहुँचते पहुँचते सभी यात्रियों के कान देवेगौड़ा और दिमाग बबलू भैय्या बन गये थे ।



चूँकि मैं पूर्व में भी पूर्व में दो बार जम्मू-श्रीनगर हाईवे पर गुजर चुका हूँ सो मेरे लिए यह रास्ता रोमांचक तो है पर उतना नहीं था जितना पहली बार की यात्रा में था पर दिन भर की इस सड़क यात्रा के दौरान दो चीजे खास रही जिसका उल्लेख आवश्यक है । पहला पत्नीटॉप से पहले हम अधेड़ लोगों ने सड़क के किनारे भुट्टे खाते हुए युवा होने का अनुभव किया ।




दूसरा पूरे रास्ते विभिन्न प्रांतों के भोले भण्डारी के भक्तों का निशुल्क लंगर लगा हुआ था । रामबन में रूककर हमने भी एक भण्डारे में दोपहर का खाना खाया । खाना किसी वैवाहिक पार्टी से भी ज्यादा  विभिन्न पकवानों से अटा पड़ा था और आईये भोले प्लीज खाईये के आग्रह से इतना आत्मीय था जिसका वर्णन करना सम्भव नहीं । पहली बार मैने मूँग की खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट खाई थी लेकिन एक स्टाल पर गरमा गरम कुल्फी खाने की ऐतिहासिक अनुभूति नहीं हो पाई ।



रात नौ बजे 315 किमी लम्बी घाटी रास्ते को पार कर हमारी गाड़ी पहलगाम पहुँची । लिद्दर नदी जो कि शेषनाग से उद्गम होती है, के स्वच्छ ,निर्मल और तेज प्रवाह से कलकल करता पहलगाम, यात्रा के प्रारंभ में ही अद्भुत रोमांच दे गया।


नुनवान का यात्री पड़ाव, हमारा पहला बेस कैम्प, जहाँ सेनापति ने टैंट बुक किया और हम सामान रखकर भण्डारे की ओर रात्रि के भोजन को निकल पड़े । भण्डारों की एक लम्बी श्रंखला थी और सभी भण्डारों में अलग अलग व्यंजनों की महक और वही विनम्र आग्रह “आईये भोले कुछ तो ग्रहण कीजीए “ एक अद्भुत सेवाभाव और समर्पण का भाव दृष्टिगोचर हो रहा था । भोजन का आनंद लेकर सभी टैण्ट में निद्रादेवी की गोद में चले गये ।



 बाबा बर्फानी के दिव्य स्वरूप के दर्शन हेतु पवित्र गुफा तक पहुँचने के लिए आपके पास पदयात्रा मार्ग के दो विकल्प हैं पहला सोनमर्ग , बालटाल से 14 किमी एवं दूसरा अनंतनाग, पहलगाम होते हुए चंदनबाड़ी से 32 किमी यानी कि पहलगाम और बालटाल तक किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। । हमने चंदनबाड़ी से ही गुफा की ओर प्रस्थान कर वापसी बालटाल की ओर से वापसी का निश्चय किया था और अधिकतर भक्त यही करते हैं । इसके दो मुख्य कारण हैं । पहला चंदनबाड़ी से चढ़ाई यद्यपि लम्बी है किंतु यह मार्ग अपेक्षाकृत ज्यादा सुगम रोमांचकारी और खूबसूरत नजारों से भरपूर है । दूसरा एवं महत्वपूर्ण कारण पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महादेव और माता पार्वती का गमन पथ भी यही था ।



सुबह पाँच बजे स्वत: ही कोलाहल से नींद टूट गई । सभी नित्यकर्म से निवृत होकर चंदनबाड़ी के लिए लाईन में खड़े हो गये । करीब डेढ़ घण्टे लाईन में खड़े होने के बाद हम कैम्प से बाहर निकले तो अव्यवस्था का नजारा दिखाई देने लगा । जम्मू-कश्मीर पुलिस की कार्यकुशलता अपनी कहानी खुद बयाँ कर रही थी । कैम्प के अंदर इतनी देर लाईन में खड़े होने के बाद भी बाहर भगदड़ की स्थिति थी ।

किसी तरह चंदनबाड़ी की ओर एक किलोमीटर पैदल चलकर एक मारूति वैन में कब्जा कर किराये का सौदा किया तथा सभी 11 यात्री उसमें समाहित होने का प्रयास किये लेकिन केवल नौ ही सफल हो पाये । सेनापति ने आदेश दिया कि आप लोग निकले, 
एक सहयात्री को लेकर किसी और गाड़ी से आता हूँ और हमारी छोटी सी मारूति वैन पुष्पक विमान के जैसे 10 व्यक्तियों को आत्मसात कर चंदनबाड़ी की ओर निकल चली । घुमावदार पहाड़ी रास्ते में लिद्दर नदी के साथ साथ चलते हुए ड्रायवर ने सिगरेट को सुलगाते हुए कहा जनाब ये बेताब घाटी है और इसे बेताब घाटी इसलिए कहते हैं क्योंकि सनी देओल की फिल्म बेताब की पूरी सूटिंग यहीं हुई ।


किसी तरह आधे घण्टे में 16 किमी की कष्टप्रद लेकिन प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों से गुजरते हुए चंदनबाड़ी तक की यात्रा सम्पन्न हुई और गाड़ी से उतरते ही सेनापति अपनी जुगाड़मेंट प्रतिभा का उपयोग कर हमसे पहले पहुँचकर हमारे इंतजार में उपस्थित पाये गये । सबसे पहले उन्होने आदेश दिया कि सब एक-एक लाठी खरीद लें । पूरी यात्रा के दौरान यही आपका सच्चा साथी होगा । मैंने उनके आदेश की गंभीरता को समझकर अपनी ही लम्बाई का एक मजबूत लाठी खरीदा और फिर निकल पड़े जाँच चौकी की ओर । चंदनबाड़ी की यात्रा जाँच चौकी , यहीं से वास्तविक पदयात्रा प्रारंभ होती है । गेट पर जवान ने मुझसे यात्रा पर्ची का एक हिस्सा जो वहाँ जमा किया जाता है, फाड़कर देने को कहा । मेरे द्वारा प्रदान कर दिये जाने पर वह ना तो उस पर लगाये गये फोटो से मेरे चेहरे का मिलान किया ना ही मेरे पिठ्ठू की जाँच की और कहा चलिए । मैं बड़ा आश्चर्यचकित था, इतनी बड़ी यात्रा और कोई जाँच या पुछताछ नहीं, यकीनन इस यात्रा के सुरक्षा के बाबा बर्फानी ही मालिक हैं ।


सभी सहयात्री सुरक्षा चौकी पार कर एक स्थल पर एकत्रित हुए और सुबह से भूखे पेट होने के कारण चढ़ाई से पूर्व कुछ जलपान करने का मन बनाया । भोले भक्तों के यहाँ पर भी कई निशुल्क लंगर थे और आप अपने स्वरूचि अनुसार विभिन्न पकवान भी । मैंने इडली खाकर दूध जलेबी खाना तय किया । जलपान उपरांत अजय भाई की एक धीर गंभीर आवाज आई । सेनापति आप सब को एक विशेष उद्बोधन करेंगे ।



सेनापति ने बिना माईक के इंकलाब के अमिताभ बच्चन स्टाईल में अपना उद्बोधन प्रारंभ किया- भोले भण्डारियों, यहाँ से असली यात्रा प्रारंभ होती है और यहाँ से पवित्र गुफा की दूरी 32 किमी है । आपको यहीं से पिस्सुटाप की 3 किलोमीटर खड़ी चढ़ाई मिलेगी । यात्रा के पहले पड़ाव का सबसे कठिन खण्डित भाग है लेकिन इसे पूरा करने का अर्थ आधी यात्रा तय कर लेना है । जल्दबाजी ना करें, अपनी सुविधानुसार आराम चढ़े और उर्जा संरक्षित रखें। यात्रा सुगमता से पूर्ण करने का मूलमंत्र है खरगोश की तरह उत्साह ना दिखाकर कछुये की तरह निरंतर धीमी गति से चलते रहें । जिस रास्ते लोग चल रहें हों उसी  रास्ते चले । किसी अन्य शार्टकट रास्ते का प्रयोग ना करें । सुरक्षा की दृष्टि से यह घातक होगा । हमारा पहला पड़ाव शेषनाग है जो यहाँ से 14 किमी दूर है । यथा सम्भव सभी साथ चले, किसी कारण कोई यदि बिछड़ गये तो शेषनाग के बेस कैम्प पर मिलेंगे। पूरी यात्रा के दौरान सभी एक नियम गाँठ बाँध ले कोई भी यात्री निर्धारित स्थल से आगे नहीं जायेगा और जब तक सब इकठ्ठे ना हो जायें, पड़ाव के प्रथम भण्डारे या उद्घोषणा केंद्र पर ही इंतजार करें । एक दूसरे को ढूँढने का यही एकमात्र नियम होगा । चलिए भोले प्रस्थान कीजिये ...  बोल बाबा बर्फानी की जय …. हर हर महादेव । 


सेनापति काफी तेज और फुर्तीले है तथा उन्होने मेरा पूरी यात्रा में विशेष खयाल रखा । मुझसे उन्होने चढ़ाई आरंभ करने के पहले ही कह दिया कि चूँकि आपकी एड़ी चोटग्रस्त है अत: आप पिस्सू टॉप तक घोड़ा कर लें । उनकी सलाह को आदेश मानकर मैंने तत्काल अपने शरीर का बोझ एक घोड़े पर धर दिया । अब मैं अपने साथियों से बिछड़ चुका था । कुछ दूर जाने के बाद जैसे ही खड़ी चढ़ाई आई उपर जाम लग गया था । शहर में मैंने कई बार गाड़ियों का ट्रैफिक जाम देखा था पर पहाड़ी पर पैदल और घोड़ों का जाम मेरे लिए नई अनूभूति थी । पिस्सु टॉप तीन किमी की बिल्कुल खड़ी चढ़ाई है और वो भी बिना रास्ते की, एक लाईन से एक दूसरे के पीछे चलना ही वहाँ की सड़क है । कुछ उँचाई चढ़ने पर बाकी साथी भी मिलते गये जो पैदल चढ़ रहे थे ।



इसी बीच प्रकाश बाबू ने मेरी ओर ईशारा कर चिल्लाकर कहा ओ देखो छत्तीसगढ़ का हीरो घोड़े पर जा रहा है फिर मनमद और आशीष ने हाथ हिलाकर अभिवादन किया और कहा “गजब सर, एक तरफा” फिर कुछ दूर आगे जाकर हम फिर जाम में फंस गये वहाँ सेनापति ने मुझे देखकर कहा, अरे वाह सर आप , मजा आ गया ..  जय भोले । इन सब लोगों को घोड़े वाला बड़ी बारीकी से देख रहा था। अब उसे प्रकाश बाबू की बातों पर यकीन होने लगा था हो ना हो मैं कोई फिल्मी कलाकार हूँ । उसने मुझसे कहा कि साहब आप की फिल्में कौन सी टीवी चैनल पर आती हैं हमारे पास भी टीवी है , बताईये हम देखेंगे और गाँव वालों को बतायेंगे कि आप हमारे घोड़े पर बैठे थे । मैंने उससे कहा कि भाई वो मेरे पहचान के लोग है और मजाक कर रहें हैं । मैं एक मामूली आदमी हूँ कोई फिल्म स्टार नहीं । लेकिन वो मानने को तैय्यार नहीं था । इतने में मेरे साथ चल रहे संतोष जायसवाल को मसखरी सूझी और उसने घोड़े वाले से कहा ज्यादा सवाल मत पूछो, साहब गुस्सा हो जायेंगे । उसने जब संतोष से पूछा कि आप कौन है और साहब का नाम क्या है तो संतोष ने बड़ी गंभीरता से कहा साहब का नाम संजय खन्ना है और मैं साहब का बॉडीगार्ड हूँ । बस इतना सुनते ही उसका विश्वास उतना ही अटल हो गया जितना मेरा बाबा बर्फानी पर ।

चूँकि हम बीच पहाड़ी पर जाम में फँसे हुए थे इसलिए मैंने कुछ तस्वीर उतारने की सोचा तो वह बड़ा विनयपूर्वक कहने लगा साहब मेरे साथ भी एक तस्वीर खींचा लीजिये। फिर वो मेरे साथ अलग अलग अंदाज में कई तस्वीर खींचवाया । इसी बीच जाम में हमारे साथ फँसे कुछ लोग भी मुझे फिल्मी कलाकार मानने लगे और तरह तरह के प्रश्न पूछने लगे । एक सज्जन ने पूछा आपकी आने वाली फिल्म कौन सी है । मैने झुँझलाकर कहा “भाई फौजी, भौजाई मनमौजी” उसने गंभीरता से पुन: पुछा “कब रिलीज होगी” । मैंने कहा 25 जुलाई को दिल्ली में प्रीमियर है जंतर मंतर पर । घोड़े वाले ने बड़े अदब से कहा साहब आप तो बादशाह हो तो मैंने उसे सूफीयाना अंदाज में कहा कि अकबर भी तो बादशाह था पर वो फकीर सलीम के दरबार में नंगे पाँव गया था और मैं तो दुनिया के बादशाह के घर घोड़े पर जा रहा हूँ । इतना सुनते ही अब वो मेरे ज्ञानी होने का मुरीद हो चुका था लेकिन बाबा बर्फानी और मैं ही जानते थे कि मैं कितना बड़ा उँगलबाज हूँ ।


इस प्रकरण से मुझे व्यक्तिगत नफा-नुकसान दोनों ही हुए। नफा ये कि पूरी चढ़ाई उसने मेरा विशेष खयाल रख कर मेरे टाँगों को संकरे मार्ग पर टकराने से बचाता रहा और बड़ी सावधानी से चढ़ाई चढ़ी । मेरे सामने ही एक व्यक्ति के घोड़े से गिर जाने से मृत्यु हो चुकी थी किंतु उसका मेरे लिए विशेष खयाल रखने से मेरा भय जाता रहा और मैं बेफिक्र होकर खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए भी एक हाथ में कैमरा थामें फोटो खींच रहा था । नुकसान मुझे 200 रू का हुआ जो उसने चढ़ाई पूरी करने के बाद मेहनताने के अतिरिक्त बख्शीश के रूप में माँगे लेकिन उसका पूरी यात्रा के दौरान मेरी सुरक्षा का खयाल रखने के सामने मुझे यह गौण लगा और मैंने उसे खुशी से रूपये दिये थे । उसने बड़े आदर से कहा साहब अगर आप कहें तो शेषनाग तक चलता हूँ । मैंने उसे कहा - नहीं, अब यहाँ से मैं पैदल चलूँगा । आश्चर्यजनकरूप से सेनापति भी थोड़ी ही देर बाद ही वहाँ पहुँच गये । फिर हम दोनो साथ होकर शेषनाग के रास्ते पर निकल पड़े और हमारा अगला लक्ष्य था जोजीबल फिर नागाकोटी ।
 शेष संस्मरण तीसरी और अंतिम किश्त में ... क्रमश:

5 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों का जादू बरकरार है...भाषा का प्रवाह उत्तम है ,साथ ही आपके विशेष राजनैतिक उपमानो के हास्य भी पैदा किया...आगामी कड़ी का बेसब्री से इंतेज़ार

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  2. संजय भाई, संस्‍मरण में चित्रों का समन्‍वय बेहतरीन है, शैली में सम्‍मोहन है जो बांध कर रखता है, मैं तो खैर ये ही सोचता रह जाता हूं, मैं क्‍यों न हुआ साथ

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  3. मन नहीं भरा भाई ,,,कितनी बार पढ़ा ये भी याद नहीं,,जय भोले ,,,,,,,,,
    मनभर जाने पर ही पूरा कमेन्ट लिखुगा ,,,,,,,,,,,,:):):):)

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  4. ये गरमा गर्म कुल्फी ,,,समज नहीं आरहा है भाई .......

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